Sunday, September 18, 2011

      भविष्य की तैयारी                                                         au                                                 पिता की अर्थी लोगों की दी हुई भीख के सहारे बनाई गई है, यह विचार उसे बेहद भारी मालूम होने लगा था। मंगनी के पैसों से पिता का संस्कार! घाट पर पहुंचते ही भिखमंगों की भीड़ ने घेर लिया। अधनंगे कृषकाय भिखमंगे, जिनको देखने से ही मन में करुणा पैदा होने लगती थी। वे हाथ फैला-फैला कर करुणा उपजाने की कोशिशें करते हुए उससे भीख मांगने लगे थे। उस मौके पर धीरज के अंदर इतना साहस नहीं बचा था कि वह उनमें से किसी के चेहरे को भी ठीक तरह से आंखों में आंखे डाल कर देख सके। उसे लगा कि वह खुद भी घाट पर बैठे हुए उन्हीं भिखमंगों की कतार में शामिल है और उसे अपने लिए घाट पर बैठने की एक जगह की तलाश है।
दाह-संस्कार के बाद घर की ओर लौटते हुए उसने लकड़ियों की कीमत जमा कर दी। उसे अदा कर देने के बाद धीरज अपने पंडित की ओर मुड़ा।
‘पंडितजी, आपकी दक्षिणा!’
‘तुमसे कोई दक्षिणा नहीं धीरज!’ ब्राह्मण ने अपनी दक्षिणा लेने से इंकार कर दिया। घाट पर ब्राह्मण का अपनी परंपरागत दक्षिणा लेने से इंकार कर देना उसे सबसे ज्यादा खल गया। पंडितजी उसे स्पष्ट तौर पर यह निर्देश दे रहे हैं कि ये पैसे घर ले जाओ और इनसे बेसहारा हो गए अपने परिवार की कुछ दिनों की रोटी का जुगाड़ कर लेना। 
घाट का पैसा घर के अंदर! धीरज घाट से निषिद्ध पैसों की भीख अपनी जेब के अंदर ले कर घर की ओर लौटने लगा है। कई दिनों तक वह एक भयंकर मानसिक सदमे में रहा। वे दिन और उसके बाद के कई दिन, धीरज के परिवार ने कैसी विकट परिस्थितियों में, अपने लोगों से मिलने वाली सहायता के सहारे गुजारे थे, उन यादों को वह कभी भुला नहीं पाया। बाद की जिंदगी की शुरुआत उसने ट्यूशन से की थी। उसकी बेकारी पर तरस खाते हुए लोग अपने और अपनों के बच्चों को उसके पास भेजने-भिजवाने लगे। पढ़ाने में वह अपनी पूरी शक्ति और मेधा खपाने लगा। जिन बच्चों के माता-पिता उनके कभी सफल हो पाने के बारे में पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके थे, वे सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए मंजिलों पर पहुंचने लगे। उसके पढ़ाए बच्चे कक्षाओं में अव्वल आने लगे। शहर में उसका नाम फैलने लगा। खुद भी प्राइवेट परीक्षाओं की सीढ़ियां पार करते हुए उसने एमए कर लिया। उसे कॉलेज में अध्यापन की नौकरी भी मिल गई। उसने देवकी की पढ़ाई भी जारी रखवाई। उसका विवाह भी कर लिया। नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में उसकी गिनती होने लगी। मां के जीवन-काल में ही धीरज ने अपने लिए एक घर भी बना लिया। और मां की इच्छाओं का अनुपालन करते हुए अपने लिए एक दुलहन भी ले आया।
इतवार का दिन। धीरज का इकलौता बेटा शशांक। उसे आज दफ्तर नहीं जाना है। उसके पिता ने आज आखिरी किनारे पर बनी कोठरी को खाली करने को कह दिया है। उसके अंदर किसी का भी प्रवेश वर्जित कर दिया है। उसकी मां भी वहां नहीं जा सकती, बहू भी नहीं। वह ऐसी जगह पर बनाई गई थी कि कोई आने-जाने वाला कोशिश करने पर भी वहां ताक-झांक न कर सके। उस कोठरी के ताले की चाभी हमेशा धीरज के पास रहती है। ‘मेरे जीते-जी इस कोठरी के अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं है।’ एक दिन उसने शशांक से अकेले में एक बात कही थी, ‘बेटे! मेरे जाने के बाद तुम मेरी चाभी अपने कब्जे में ले लेना। घाट पर ले जाने के लिए कोई और काम बाद में किया जाना चाहिए।’
शशांक की बेटी का विवाह अपने ही घर से करने का निर्णय लिया गया था। बारात के स्वागत के लिए घर के बाहर ही शामियाना लगा दिया जाएगा।
‘मिठाइयां बाजार से खरीद लें, पापा?’
‘मेरे खयाल में बाजार खरीदने के बजाय हलवाई के कारीगरों को घर पर ही बुलवा लेना ठीक रहेगा शशांक। वे घरातियों के लिए रसोई भी बना लेंगे।
कारीगर से मिठाइयां और नमकीन बनवा लिए गए। समस्या उनको किसी अलग कमरे में सुरक्षित रखने की हुई। परिवार वालों ने समस्या धीरज के सामने पेश कर दी। आशा थी कि वह मंगलकार्य की मिठाइयों के लिए अपनी कोठरी का उपयोग कर लेने देगा। लेकिन धीरज ने साफ मना कर दिया। आंगन में ही एक और तंबू लगवा कर काम चलाना पड़ा। बारात के लिए शानदार शामियाना लगवाया गया था। उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि वहां पर एक दोमंजिला, खूबसूरत, पक्का भवन बना हो। वैसा भव्य भवन और इंतजामात को देख कर सभी लोग आश्चर्य में डूबने लगे थे। बारात के आते ही अचानक बहुत जोर का पानी बरसने लगा। साथ में जबर्दस्त आंधी। लोग अकबका गए। बारात के पहुंचते-पहुंचते शामियाने की छत के ऊपर पानी भर गया। पानी के दबाव और आंधी के कारण शामियाने के चमकते हुए खंभे एक-एक कर नीचे गिरने लगे। भगदड़ मच गई। मैदान, जिसमें शामियाना खड़ा था, घुटनों तक के पानी से लबालब हो गया। बारातियों को सुरक्षित स्थानों पर बैठाने की तात्कालिक समस्या पैदा हो गई। धीरज का पूरा परिवार उन सभी लोगों को अपने घर के कमरों के अंदर लेते आने में जुट गया। कमरों के अंदर रिश्तेदारों के कई दिन पहले से आ जाने से वहां पहले से ही कहीं तिल रखने की जगह बाकी नहीं थी। संकट के उस मौके पर शशांक ने अपने पिता से पूछा, ‘पापा, कोठरी का ताला खोला जा सकता है?’
‘वह ताला नहीं खोला जा सकता शशांक।’ 
कुछ दिन बाद शहरवासियों को धीरज की अचानक हुई मृत्यु का समाचार सुनाई दिया। पिता के निर्देशानुसार शशांक ने कोठरी का दरवाजा खोला। वहां रखे तीन संदूकों में एक के ऊपर एक बड़ा लिफाफा रखा था। उस पर मोटे, लाल अक्षरों में एक बड़े कोष्टक के अंदर लिखा था,‘ पहले इसे खोलो।’ लिफाफे के अंदर एक कागज पर लिखा था, ‘मेरे पिता एक ईमानदार, कर्तव्यपरायण, नेकदिल इंसान थे। उनके सद्गुणों का भुगतान हमारे परिवार को करना पड़ता था। उनकी अचानक मौत के वक्त परिवार के पास कफन तक के पैसे नहीं थे। दाह-संस्कार का पूरा खर्चा लोगों ने चंदा करके मेरी जेब में डाल दिया था। मैं उस प्रसंग को आजीवन भुला नहीं पाया। मेरे मन में तभी से यह विचार प्रबल होने लगा था कि हर भारतवासी को अपने जीवन काल में अपनी मौत का सामान जमा कर लेना चाहिए। उसका एक मुख्य कारण रोज-ब-रोज बढ़ती मंहगाई भी है। हमारे अपने हाथ में कुछ भी नहीं रह गया है। सब कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में है। मैंने इस कोठरी में इतना सामान जमा कर लिया है कि मेरी मौत के बाद मुझे घाट पर ले जाने, तेरहवीं और श्राद्ध जैसे संस्कारों के लिए पैसों या साधनों की कमी आड़े न आए। मेरा यह भी सुझाव है आम आदमी को मौत की ओर धकेल रही हमारी सरकारों को इस दिशा में विशेष पहल करनी चाहिए। मेरा अनुभव है कि आम भारतवासी मरने से नहीं डरता, वह अपनी मौत के बाद उत्तराधिकारियों के सामने पैदा हो जाने वाली विकराल समस्याओं से डरने लगा है। हमारी सरकारें, चाहे वे किसी भी पार्टी की हों, आम आदमी का जीना दूभर करने लगी हैं। हमारी कीमत पर राजनेताओं का दाह-संस्कार करने वाली सरकारों को एक ‘मृत्यु-कोष’ की स्थापना करनी चाहिए, जिसका संचालन करने के लिए एक अलग ‘संस्कार मंत्रालय’ का गठन किया जाना चाहिए। संविधान में संशोधन करके प्रत्येक भारतवासी को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि उसकी मृत्यु हो जाने पर राज्य की ओर से घाटों पर नियुक्त अधिकारी निःशुल्क और राजकीय खर्चे पर उसका संस्कार करवा दे। और वह अधिकारी बगैर भेदभाव के मुसलमानों व ईसाइयों को कब्र में जगह की व्यवस्था करे और दीगर वांछित खर्चों की भी व्यवस्था करे ताकि किसी को हलवाई की दुकान के बाहर खड़े होकर दादा मियां का फातिहा न पढ़ना पड़े।’

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