Saturday, September 17, 2011

जागो-सीखो

        तमाम सांसारिक सुविधाएं उपलब्ध होने के बाद भी पूर्णा असंतुष्ट और दुखी थी। शांति की खोज में एक रात वह बौद्ध विहार पहुंची। वहां भी वह सुख की नींद न सो सकी और जागती रही। उसने एक भिक्षु को देखा कि वह भी जाग रहा है। उसे शंका हुई कि कहीं वह उसके रूप-सौंदर्य के कारण तो नहीं जाग रहा है। वह अगले सवेरे निराश मन से घर लौट गई। 


एक दिन बुद्ध भिक्षा मांगते हुए उसके घर जा पहुंचे। उसे लगा कि कहीं यह भिक्षु भी आकर्षित होकर न आया हो। उसने मन में सोचा कि क्यों न भिक्षु को झिड़ककर भगा दिया जाए। किंतु भिक्षु की शांत मुद्रा देखकर वह शांत हो गई। उसने उन्हें भोजन कराया। भोजन के बाद तथागत ने पूछा, ‘पूर्णे, तू भिक्षुओं के प्रति आशंकित क्यों है?’ वह समझ गई कि यह बुद्ध हैं। उसने बता दिया कि वह विहार में रात भर जगी रही, भिक्षु भी नहीं सो पाया। बुद्ध ने कहा, ‘पूर्णा तू उस रात अपने दुख और विकारों के कारण नहीं सोई थी और मेरे भिक्षु आनंद के कारण जगे थे। वे ध्यान कर रहे थे।’ 


तथागत ने कहा, ‘जागने और वास्तव में जागने में अंतर है। तू जागना सीख। सोए-सोए तो तूने सब गंवाया ही गंवाया है।’ धम्मगाथा सुनाते हुए बुद्ध ने कहा, सदा जागरमानानं अहोरत्तानु सिक्खिनं। निब्बानं अधिमुत्तानं अत्थं गच्छंति आसवा। यानी जो सदा जागरूक रहते हैं और हर समय सीखने की इच्छा रखते हैं, वही सत्य की थाह ले सकते हैं। वही निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। पूर्णा उसी क्षण उनका अनुसरण करने निकल पड़ी।

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