इस सप्ताह हम जानेंगे की कुण्डली में ग्रह एवं राशि इत्यादि को कैसे दर्शाया जाता है। साथ ही लग्न एवं अन्य भावों के बारे में भी जानेंगे। कुण्डली को जन्म समय के ग्रहों की स्थिति की तस्वीर कहा जा सकता है। कुण्डली को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि जन्म समय में विभिन्न ग्रह आकाश में कहां स्थित थे। भारत में विभिन्न प्रान्तों में कुण्डली को चित्रित करने का अलग अलग तरीका है। मुख्यत: कुण्डली को उत्तर भारत, दक्षिण भारत या बंगाल में अलग अलग तरीके से दिखाया जाता है। हम सिर्फ उत्तर भारतीय तरीके की चर्चा करेंगे।
कुण्डली से ग्रहों की राशि में स्थिति एवं ग्रहों की भावों में स्थिति पता चलती है। ग्रह एवं राशि की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं और भाव की चर्चा हम आगे करेंगे। उत्तर भारत की कुण्डली में लग्न राशि पहले स्थान में लिखी जाती है तथा फिर दाएं से बाएं राशियों की संख्या को स्थापित कर लेते हैं। अर्थात राशि स्थापना (anti-clock wise) होती हैं तथा राशि का सूचक अंक ही अनिवार्य रूप से स्थानों में भरा जाता है। एक उदाहरण कुण्डली से इसे समझते हैं।
भावथोडी देर के लिए सारे अंको और ग्रहों के नाम भूल जाते हैं। हमें कुण्डली में बारह खाने दिखेंगे, जिसमें से आठ त्रिकोणाकार एवं चार आयताकार हैं। चार आयतों में से सबसे ऊपर वाला आयत लग्न या प्रथम भाव कहलाता है। उदाहरण कुण्डली में इसमें रंग भरा गया है। लग्न की स्थिति कुण्डली में सदैव निश्चित है। लग्न से एन्टी क्लॉक वाइज जब गिनना शुरू करें जो अगला खाना द्वितीय भाव कहलाजा है। उससे अगला खाना तृतीय भाव कहलाता है और इसी तरह आगे की गिनती करते हैं। साधारण बोलचाल में भाव को घर या खाना भी कह देते हैं। अ्ंग्रेजी में भाव को हाउस (house) एवं लग्न को असेन्डेन्ट (ascendant) कहते हैं।भावेशकुण्डली में जो अंक लिखे हैं वो राशि बताते हैं। उदाहरण कुण्डली में लग्न के अन्दर 11 नम्बर लिखा है अत: कहा जा सकता है की लग्न या प्रथम भाव में ग्यारह अर्थात कुम्भ राशि पड़ी है। इसी तरह द्वितीय भाव में बारहवीं अर्थात मीन राशि पड़ी है। हम पहले से ही जानते हैं कि कुम्भ का स्वामी ग्रह शनि एवं मीन का स्वामी ग्रह गुरु है। अत: ज्योतिषीय भाषा में हम कहेंगे कि प्रभम भाव का स्वामी शनि है (क्योंकि पहले घर में 11 लिखा हुआ है)। भाव के स्वामी को भावेश भी कहते हैं।प्रथम भाव के स्वामी को प्रथमेश या लग्नेश भी कहते हैं। इसी प्रकार द्वितीय भाव के स्वामी को द्वितीयेश, तृतीय भाव के स्वामी को तृतीयेश इत्यादि कहते हैं।ग्रहों की भावगत स्थितिउदाहरण कुण्डली में उपर वाले आयत से एन्टी क्लॉक वाइज गिने तो शुक्र एवं राहु वाले खाने तक पहुंचने तक हम पांच गिन लेंगे। अत: हम कहेंगे की राहु एवं शुक्र पांचवे भाव में स्थित हैं। इसी प्रकार चंद्र एवं मंगल छठे, शनि - सूर्य-बुध सातवें, और गुरु-केतु ग्यारवें भाव में स्थित हैं। यही ग्रहो की भाव स्थिति है।ग्रहों की राशिगत स्थितिग्रहों की राशिगत स्थिति जानना आसान है। जिस ग्रह के खाने में जो अंक लिखा होता है, वही उसकी राशिगत स्थिति होती है। उदाहरण कुण्डली में शुक्र एवं राहु के आगे 3 लिखा है अत: शुक्र एवं राहु 3 अर्थात मिथुन राशि में स्थित हैं। इसी प्रकार च्रद्र एवं मंगल के आगे चार लिखा है अत: वे कर्क राशि में स्थित हैं जो कि राशिचक्र की चौथी राशि है।
याद रखें कि ग्रह की भावगत स्थिति एवं राशिगत स्थिति दो अलग अलग चीजें हैं। इन्हें लेकर कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।
ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकत्व एवं उनका आपसी संबध है।
ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है, जहाँ ग्रह विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण होता है।
ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'स्वभाव' होता है। इसके अलाव ग्रहों का 'कारकत्व' भी होता है। राशियों का केवल 'स्वभाव' एवं भावों का केवल 'कारकत्व' होता है। स्वभाव और कारकत्व में फर्क समझना बहुत जरूरी है।
सरल शब्दों में 'स्वभाव' 'कैसे' का जबाब देता है और 'कारकत्व' 'क्या' का जबाब देता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है। ऐसी स्थिति में सूर्य क्या परिणाम देगा?
नीचे भाव के कारकत्व की तालिका दी है, जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का कारक है। अत: सूर्य क्या देगा, इसका उत्तर मिला की सूर्य 'व्यवसाय' देगा। वह व्यापार या व्यवसाय कैसा होगा - सूर्य के स्वाभाव और मेष राशि के स्वाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: व्यवसाय आक्रामक हो सकता है। दूसरे शब्दों में जातक सेना या खेल के व्यवयाय में हो सकता है, जहां आक्रामकता की जरूरत होती है। इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के स्वाभाव एवं कारकत्व को मिलाकर फलकथन किया जाता है।
दुनिया की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है। चूँकि दुनिया की सभी चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकत्व के बारे में चर्चा करेंगे।
सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकत्व इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रंग-रूप, कद, जाति आदि।
द्वितीय भाव: दूसरे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मुख, वाणी, आर्थिक स्थिति, कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मृत्यु, नाक आदि।
तृतीय भाव : तृतीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति, मानसिक संतुलन आदि।
चतुर्थ भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमुख विषय - सुख, विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गृह, माता, संबंधी गण,पशुधन और इमारतें।
पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य, दान, मनोरंजन, जुआ आदि।
षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी, मामा, अवसाद आदि।
सप्तम भाव : विवाह, पत्नी, यौन सुख, यात्रा, मृत्यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से संबंधित हैं।
अष्टम भाव : आयु, दुर्भाग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रुता, अकाल मृत्यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म के कर्मों के मुताबिक सुख व दुख, परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।
नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गुरु, प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता, पूर्वजन्मों का संचि पुण्य।
दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद, प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतृक व्यवसाय।
एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मुनाफा, आभूषण, अभिलाषा पूर्ति, धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।
द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रुता के कार्य, दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।
इस बार इतना ही। ग्रहों का स्वभाव/ कारकत्व व राशियों के स्वाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करेंगे।
पिछले अंक में हमनें भाव कारकत्व के बारे में जाना। हमने यह भी जाना कि कारकात्व एवं स्वभाव में क्या फर्क होता है। इस बार पहले हम राशियों के बारे में जानते हैं। राशियों के स्वभाव इस प्रकार हैं-
मेष – पुरुष जाति, चरसंज्ञक, अग्नि तत्व, पूर्व दिशा की मालिक, मस्तक का बोध कराने वाली, पृष्ठोदय, उग्र प्रकृति, लाल-पीले वर्ण वाली, कान्तिहीन, क्षत्रियवर्ण, सभी समान अंग वाली और अल्पसन्तति है। यह पित्त प्रकृतिकारक है। इसका प्राकृतिक स्वभाव साहसी, अभिमानी और मित्रों पर कृपा रखने वाला है।
वृष – स्त्री राशि, स्थिरसंज्ञक, भूमितत्व, शीतल स्वभाव, कान्ति रहित, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, वातप्रकृति, रात्रिबली, चार चरण वाली, श्वेत वर्ण, महाशब्दकारी, विषमोदयी, मध्य सन्तति, शुभकारक, वैश्य वर्ण और शिथिल शरीर है। यह अर्द्धजल राशि कहलाती है। इसका प्राकृतिक स्वभाव स्वार्थी, समझ-बूझकर काम करने वाली और सांसारिक कार्यों में दक्ष होती है। इससे कण्ठ, मुख और कपोलों का विचार किया जाता है।
मिथुन – पश्चिम दिशा की स्वामिनी, वायुतत्व, तोते के समान हरित वर्ण वाली, पुरुष राशि, द्विस्वभाव, विषमोदयी, उष्ण, शूद्रवर्ण, महाशब्दकारी, चिकनी, दिनबली, मध्य सन्तति और शिथिल शरीर है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विद्याध्ययनी और शिल्पी है। इससे हाथ, शरीर के कंधों और बाहुओं का विचार किया जाता है।
कर्क – चर, स्त्री जाति, सौम्य और कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रक्त-धवल मिश्रित वर्ण, बहुचरण एवं संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशीलता, लज्जा, और कार्यस्थैर्य है। इससे पेट, वक्षःस्थल और गुर्दे का विचार किया जाता है।
सिंह – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, अग्नितत्व, दिनबली, पित्त प्रकृति, पीत वर्ण, उष्ण स्वभाव, पूर्व दिशा की स्वामिनी, पुष्ट शरीर, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति, भ्रमणप्रिय और निर्जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वरूप मेष राशि जैसा है, पर तो भी इसमें स्वातन्त्र्य प्रेम और उदारता विशेष रूप से विद्यमान है। इससे हृदय का विचार किया जाता है।
कन्या – पिंगल वर्ण, स्त्रीजाति, द्विस्वभाव, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, वायु और शीत प्रकृति, पृथ्वीतत्व और अल्पसन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव मिथुन जैसा है, पर विशेषता इतनी है कि अपनी उन्नति और मान पर पूर्ण ध्यान रखने की यह कोशिश करती है। इससे पेट का विचार किया जाता है।
तुला – पुरुष जाति, चरसंज्ञक, वायुतत्व, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, अल्पसंतान वाली, श्यामवर्ण शीर्षोदयी, शूद्रसंज्ञक, दिनबली, क्रूर स्वभाव और पाद जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, ज्ञानप्रिय, कार्य-सम्पादक और राजनीतिज्ञ है। इससे नाभि के नीचे के अंगों का विचार किया जाता है।वृश्चिक – स्थिरसंज्ञक, शुभ्रवर्ण, स्त्रीजाति, जलतत्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, कफ प्रकृति, बहुसन्तति, ब्राह्मण वर्ण और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव दम्भी, हठी, दृढ़प्रतिज्ञ, स्पष्टवादी और निर्मल है। इससे शरीर के क़द और जननेन्द्रियों का विचार किया जाता है।धनु – पुरुष जाति, कांचन वर्ण, द्विस्वभाव, क्रूरसंज्ञक, पित्त प्रकृति, दिनबली, पूर्व दिशा की स्वामिनी, दृढ़ शरीर, अग्नि तत्व, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादा का इच्छुक है। इससे पैरों की सन्धि और जंघाओं का विचार किया जाता है।मकर – चरसंज्ञक, स्त्री जाति, पृथ्वीतत्व, वात प्रकृति, पिंगल वर्ण, रात्रिबली, वैश्यवर्ण, शिथिल शरीर और दक्षिण दिशा की स्वामिनी है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उच्च दशाभिलाषी है। इससे घुटनों का विचार किया जाता है।कुम्भ – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, वायु तत्व, विचित्र वर्ण, शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति, दिनबली, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, उष्ण स्वभाव, शूद्र वर्ण, क्रूर एवं मध्य संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, शान्तचित्त, धर्मवीर और नवीन बातों का आविष्कारक है। इससे पेट की भीतरी भागों का विचार किया जाता है।मीन – द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्व, रात्रिबली, विप्रवर्ण, उत्तरदिशा की स्वामिनी और पिंगल वर्ण है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उत्तम, दयालु और दानशील है। यह सम्पूर्ण जलराशि है। इससे पैरों का विचार किया जाता है।
राशियों के स्वभाव जानने के बाद हम अब अगली बार ग्रहों के कारकत्व और स्वभाव के बारे में जानेंगे।
पिछले अंक में हमनें राशि के स्वाभाव के बारे में जाना। हमने यह भी जाना कि कारकात्व एवं स्वभाव में क्या फर्क होता है। इस बार पहले हम ग्रहों के बारे में जानते हैं। नवग्रह के कारकत्व एवं स्वभाव इस प्रकार हैं -
सूर्य –स्वभाव: चौकौर, छोटा कद, गहरा लाल रंग, पुरुष, क्षत्रिय जाति, पाप ग्रह, सत्वगुण प्रधान, अग्नि तत्व, पित्त प्रकृति है।कारकत्व: राजा, ज्ञानी, पिता, स्वर्ण, तांबा, फलदार वृक्ष, छोटे वृक्ष, गेंहू, हड्डी, सिर, नेत्र, दिमाग़ व हृदय पर अपना प्रभाव रखता है।चन्द्र –स्वभाव: गोल, स्त्री, वैश्य जाति, सौम्य ग्रह, सत्वगुण, जल तत्व, वात कफ प्रकृति है।कारकत्व: सफेद रंग, माता, कलाप्रिय, सफेद वृक्ष, चांदी, मिठा, चावल, छाती, थूक, जल, फेंफड़े तथा नेत्र-ज्योति पर अपना प्रभाव रखता है।मंगल –स्वभाव: तंदुरस्त शरीर, चौकौर, क्रूर, आक्रामक, पुरुष, क्षत्रिय, पाप, तमोगुणी, अग्नितत्व, पित्त प्रकृति है।कारकत्व: लाल रंग, भाई बहन, युद्ध, हथियार, चोर, घाव, दाल, पित्त, रक्त, मांसपेशियाँ, ऑपरेशन, कान, नाक आदि का प्रतिनिधि है।बुध –स्वभाव: दुबला शरीर, नपुंसक, वैश्य जाति, समग्रह, रजोगुणी, पृथ्वी तत्व व त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) प्रकृति है।कारकत्व: हरा रंग, चना, मामा, गणित, व्यापार, वायुरोग, वाक्, जीभ, तालु, स्वर, गुप्त रोग, गूंगापन, आलस्य व कोढ़ का प्रतिनिधि है।बृहस्पति –स्वभाव: भारी मोटा शरीर, पुरुष, ब्राह्मण, सौम्य, सत्वगुणी, आकाश तत्व व कफ प्रकृति है।कारकत्व: पीला रंग, वेद, धर्म, भक्ति, स्वर्ण, ज्ञानी, गरु, चर्बी, कफ, सूजन, घर, विद्या, पुत्र, पौत्र, विवाह तथा गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है।शुक्र –स्वभाव: सुन्दर शरीर, स्त्री, ब्राह्मण, सौम्य, रजोगुणी, जल तत्व व कफ प्रकृति है।कारकत्व: सफेद रंग, सुन्दर कपडे, सुन्दरता, पत्नी, प्रेम सम्बन्ध, वीर्य, काम-शक्ति, वैवाहिक सुख, काव्य, गान शक्ति, आँख व स्त्री का प्रतिनिधि है।शनि –स्वभाव: काला रंग, धसी हुई आंखें, पतला लंबा शरीर, क्रूर, नपुंसक, शूद्रवर्ण, पाप, तमोगुणी, वात कफ प्रकृति व वायु तत्व प्रधान है।कारकत्व: काला रंग, चाचा, ईर्ष्या, धूर्तता, चोर, जंगली जानवर, नौकर, आयु, तिल, शारीरिक बल, योगाभ्यास, ऐश्वर्य, वैराग्य, नौकरी, हृदय रोग आदि का प्रतिनिधि है।राहु व केतु –स्वाभाव: पाप ग्रह, चाण्डाल, तमोगुणी, वात पित्त प्रकृति व नपुंसक हैं।कारकत्व: गहरा धुंए जैसा रंग, पितामह मातामह, धोखा, दुर्घटना, झगडा, चोरी, सर्प, विदेश, चर्म रोग, पैर, भूख व उन्नति में बाधा के प्रतिनिधि हैं।राहु का स्वाभाव शनि की तरह और केतु का स्वाभाव मंगल की तरह होता है।
भाव, ग्रह और राशि की अब आपको पर्याप्त जानकारी हो चुकी है और आप शुरूआती भविष्यफल के लिए तैयार हैं। एक उदाहरण से जानते हैं कि इस जानकारी का प्रयोग भविष्यफल जानने के लिए कैसे किया जाय। अपनी उदाहरण कुण्डली एक बार फिर देखते हैं। माना की हमें कुण्डली वाले के रंग रूप के विषय में जानना है। अब हम जानते हैं कि रंग रूप के लिए विचारणीय भाव प्रथम भाव है। प्रथम भाव, जिसे लग्न भी कहते हैं, का स्वामी शनि है क्योंकि प्रथव भाव में ग्यारह नम्बर की राशि अर्थात कुम्भ राशि पड़ी है और कुम्भ राशि का स्वामी शनि होता है। तो कुण्डली वाले का रूप रंग शनि से प्रभावित रहेगा। शनि सूर्य और बुध के साथ सप्तम भाव में सिंह राशि में स्थित है। सिंह राशि का स्वामी भी सूर्य है अत: रंग रूप पर सूर्य का प्रभाव भी रहेगा। शनि का स्वभाव - काला रंग, धसी हुई आंखें, पतला लंबा शरीर, क्रूर, नपुंसक, शूद्रवर्ण, पाप, तमोगुणी, वात कफ प्रकृति व वायु तत्व प्रधान है। और सूर्य का स्वाभाव - चौकौर, छोटा कद, गहरा लाल रंग, पुरुष, क्षत्रिय जाति, पाप ग्रह, सत्वगुण प्रधान, अग्नि तत्व, पित्त प्रकृति है। अत: जातक पर इन दोनों का मिला जुला स्वाभाव होगा।
किसी भी अन्य विषय की तरह ज्योतिष की अपनी शब्दावली है। ज्योतिष के लेखों को, ज्योतिष की पुस्तकों को आदि समझने के लिए शब्दावली को जानना जरूरी है। सबसे पहले हम भाव से जुड़े हुए कुछ महत्वपूर्ण संज्ञाओं को जानते हैं -
भाव संज्ञाएं
केन्द्र - एक, चार, सात और दसवें भाव को एक साथ केन्द्र भी कहते हैं।
त्रिकोण - एक, पांच और नौवें भाव को एक साथ त्रिकोण भी कहते हैं।
उपचय - एक, तीन, छ:, दस और ग्यारह भावों को एक साथ उपचय कहते हैं।
मारक - दो और सात भाव मारक कहलाते हैं।दु:स्थान - छ:, आठ और बारह भाव दु:स्थान या दुष्ट-स्थान कहलाते हैं।क्रूर स्थान - तीन, छ:, ग्यारह
राशि संज्ञाएं
अग्नि आदि संज्ञाएं
अग्नि - मेष सिंह धनु
पृथ्वी - वृषभ कन्या मकर
वायु - मिथुन तुला कुम्भ
जल - कर्क वृश्चिक मीन
नोट: मेषादि द्वादश राशियां अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल के क्रम में होती हैं।
चरादि संज्ञाएं
चर – मेष,कर्क, तुला,मकर
स्थिर – वृषभ,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ
द्विस्वाभाव – मिथुन,कन्या,धनु,मीन
नोट: मेषादि द्वादश राशियां चर, स्थिर और द्विस्वाभाव के क्रम में होती हैं।
पुरुष एवं स्त्री संज्ञक राशियां
पुरुष – मेष,मिथुन,सिंह,तुला,धनु,कुम्भ
स्त्री – वृषभ,कर्क,कन्या,वृश्चिक,मकर,मीन
नोट: सम राशियां स्त्री संज्ञक और विषम राशियां पुरुष संज्ञक होती हैं।
ज्योतिष की पुस्तकों, लेखों आदि को पढ़ते वक्त इस तरह के शब्द लगातार इस्तेमाल किए जाते हैं,इसलिए इस शब्दावली को कंठस्थ कर लेना चाहिए। ताकि पढ़ते वक्त बात ठीक तरह से समझ आए। अगले पाठ में कुछ और महत्वपूर्ण जानकारियों पर बात करेंगे।
फलादेश के सामान्य नियम
यह जानना बहुत जरूरी है कि कोई ग्रह जातक को क्या फल देगा। कोई ग्रह कैसा फल देगा, वह उसकी कुण्डली में स्थिति, युति एवं दृष्टि आदि पर निर्भर करता है। जो ग्रह जितना ज्यादा शुभ होगा, अपने कारकत्व को और जिस भाव में वह स्थित है, उसके कारकत्वों को उतना ही अधिक दे पाएगा। नीचे कुछ सामान्य नियम दिए जा रहे हैं, जिससे पता चलेगा कि कोई ग्रह शुभ है या अशुभ। शुभता ग्रह के बल में वृद्धि करेगी और अशुभता ग्रह के बल में कमी करेगी।
नियम 1 - जो ग्रह अपनी उच्च, अपनी या अपने मित्र ग्रह की राशि में हो - शुभ फलदायक होगा। इसके विपरीत नीच राशि में या अपने शत्रु की राशि में ग्रह अशुभफल दायक होगा।
नियम 2 - जो ग्रह अपनी राशि पर दृष्टि डालता है, वह शुभ फल देता है।
नियम 3 - जो ग्रह अपने मित्र ग्रहों के साथ या मध्य हो वह शुभ फलदायक होता है। मित्रों के मध्य होने को मलतब यह है कि उस राशि से, जहां वह ग्रह स्थित है, अगली और पिछली राशि में मित्र ग्रह स्थित हैं।
नियम 4 - जो ग्रह अपनी नीच राशि से उच्च राशि की ओर भ्रमण करे और वक्री न हो तो शुभ फल देगा।
नियम 5 - जो ग्रह लग्नेहश का मित्र हो।
नियम 6 - त्रिकोण के स्वामी सदा शुभ फल देते हैं।
नियम 7 - केन्द्र का स्वामी शुभ ग्रह अपनी शुभता छोड़ देता है और अशुभ ग्रह अपनी अशुभता छोड़ देता है।
नियम 8 - क्रूर भावों (3, 6, 11) के स्वामी सदा अशुभ फल देते हैं।
नियम 9 - उपाच्य भावों (1, 3, 6, 10, 11) में ग्रह के कारकत्वत में वृद्धि होती है।
नियम 10 - दुष्ट स्थानों (6, 8, 12) में ग्रह अशुभ फल देते हैं।
नियम 11 - शुभ ग्रह केन्द्र (1, 4, 7, 10) में शुभफल देते हैं, पाप ग्रह केन्द्र में अशुभ फल देते हैं।
नियम 12 - पूर्णिमा के पास का चन्द्र शुभफलदायक और अमावस्या के पास का चंद्र अशुभफलदायक होता है।
नियम 13 - बुध, राहु और केतु जिस ग्रह के साथ होते हैं, वैसा ही फल देते हैं।
नियम 14 - सूर्य के निकट ग्रह अस्त हो जाते हैं और अशुभ फल देते हैं।
इन सभी नियम के परिणाम को मिलाकर हम जान सकते हैं कि कोई ग्रह अपना और स्थित भाव का फल दे पाएगा कि नहींय़ जैसा कि उपर बताया गया शुभ ग्रह अपने कारकत्व को देने में सक्षम होता है परन्तु अशुभ ग्रह अपने कारकत्व को नहीं दे पाता।
सफलता और समृद्धि के योग
किसी कुण्डली में क्या संभावनाएं हैं, यह ज्योतिष में योगों से देखा जाता है। भारतीय ज्योतिष में हजारों योगों का वर्णन है जो कि ग्रह, राशि और भावों इत्यादि के मिलने से बनते हैं। हम उन सारे योगों का वर्णन न करके, सिर्फ कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन करेंगे जिससे हमें पता चलेगा कि जातक कितना सफल और समृद्ध होगा। सफतला, समृद्धि और खुशहाली को मैं 'संभावना' कहूंगा।
किसी कुण्डली की संभावना निम्न तथ्यों से पता लगाई जा सकती है
1- लग्न की शक्ति
2- चन्द्र की शक्ति
3- सूर्य की शक्ति
4- दशम भाव की शक्ति
5- योग
लग्न, सूर्य, चंद्र और दशम भाव की शक्ति पहले दिए हुए 14 नियमों के आधार पर निर्धारित की जा सकती है। योग इस प्रकार हैं -
योगकारक ग्रह
सूर्य और चंन्द्र को छोडकर हर ग्रह दो राशियों का स्वामी होता हैं। अगर किसी कुण्डली में कोई ग्रह एक साथ केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी हो जाए तो उसे योगकारक ग्रह कहते हैं। योगकारक ग्रह उत्तम फल देते हैं और कुण्डली की संभावना को भी बढाते हैं।
उदाहरण कुम्भ लग्न की कुण्डली में शुक्र चतुर्थ भाव और नवम भाव का स्वामी है। चतुर्थ केन्द्र स्थान होता है और नवम त्रिकोण स्थान होता है अत: शुक्र उदाहरण कुण्डली में एक साथ केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी होने से योगकारक हो गया है। अत: उदाहरण कुण्डली में शुक्र सामान्यत: शुभ फल देगा यदि उसपर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं है।
राजयोग
अगर कोई केन्द्र का स्वामी किसी त्रिकोण के स्वामी से सम्बन्ध बनाता है तो उसे राजयोग कहते हैं। राजयोग शब्द का प्रयोग ज्योतिष में कई अन्य योगों के लिए भी किया जाता हैं अत: केन््द्र-त्रिकोण स्वामियों के सम्बन्ध को पाराशरीय राजयोग भी कह दिया जाता है। दो ग्रहों के बीच राजयोग के लिए निम्न सम्बन्ध देखे जाते हैं -
1 युति
2 दृष्टि
3 परिवर्तन
युति और दृष्टि के बारे में हम पहले ही बात कर चुके हैं। परिवर्तन का मतलब राशि परिवर्तन से है। उदाहरण के तौर पर सूर्य अगर च्ंद्र की राशि कर्क में हो और चन्द्र सूर्य की राशि सिंह में हो तो इसे सूर्य और चन्द्र के बीच परिवर्तन सम्बन्ध कहा जाएगा।
धनयोग
एक, दो, पांच, नौ और ग्यारह धन प्रदायक भाव हैं। अगर इनके स्वामियों में युति, दृष्टि या परिवर्तन सम्बन्ध बनता है तो इस सम्बन्ध को धनयोगा कहा जाता है।
दरिद्र योग
अगर किसी भी भाव का युति, दृष्टि या परिवर्तन सम्बन्ध तीन, छ:, आठ, बारह भाव से हो जाता है तो उस भाव के कारकत्व नष्ट हो जाते हैं। अगर तीन, छ:, आठ, बारह का यह सम्बन्ध धन प्रदायक भाव (एक, दो, पांच, नौ और ग्यारह) से हो जाता है तो यह दरिद्र योग कहलाता है।
जिस कुण्डली में जितने ज्यादा राजयोग और धनयोग होंगे और जितने कम दरिद्र योग होंगे वह जातक उतना ही समृद्ध होगा।
कालनिर्णय
ज्योतिष में किसी भी घटना का कालनिर्णय मुख्यत: दशा और गोचर के आधार पर किया जाता है। दशा और गोचर में सामान्यत: दशा को ज्यादा महत्व दिया जाता है। वैसे तो दशाएं भी कई होती हैं परन्तु हम सबसे प्रचलित विंशोत्तरी दशा की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि विंशोत्तरी दशा का प्रयोग घटना के काल निर्णय में कैसे किया जाए।
विंशोत्तरी दशा नक्षत्र पर आधारित है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी नक्षत्र के स्वामी से दशा प्रारम्भ होती है। दशाक्रम सदैव इस प्रकार रहता है -
सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र।
जैसा कि विदित है कि दशा क्रम ग्रहों के सामान्य क्रम से अलग है और नक्षत्रो पर आधारित है, अत: इसे याद कर लेना चाहिए। माना कि जन्म के समय चन्द्र शतभिषा नक्षत्र में था। पिछली बार हमने जाना था कि शतभिषा नक्षत्र का स्वामी राहु है अत: दशाक्रम राहु से प्रारम्भ होकर इस प्रकार होगा -
राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु, शुक्र, सूर्य, चन्द्र, मंगल
कुल दशा अवधि 120 वर्ष की होती है। हर ग्रह की उपरोक्त दशा को महादशा भी कहते हैं और ग्रह की महादशा में फिर से नव ग्रह की अन्तर्दशा होती हैं। इसी प्रकार हर अन्तर्दशा में फिर से नव ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा होती हैं और प्रत्यन्तर्दशा के अन्दर सूक्ष्म दशाएं होती हैं।
जिस प्रकार ग्रहों का दशा क्रम निश्चित है उसी प्रकार हर ग्रह की दशा की अवधि भी निश्चित है जो कि इस प्रकार है
ग्रह दशा की अवधि (वर्षों में)
सूर्य 6
चन्द्र 10
मंगल 7
राहु 18
गुरु 16
शनि 19
बुध 17
केतु 7
शुक्र 20
कुल 120
आगे हम यह बताएंगे कि दशा की गणना कैसे की जाती है। हालांकि, ज्यादातर समय दशा की गणना की आवश्यकता नहीं होती है इसलिए अगर गणना समझ में न आए तो भी चिन्ता की जरूरत नहीं है। आज कल जन्म पत्रिकाएं कम्प्यूटर से बनती हैं और उसमें विंशोत्तरी दशा गणना दी ही होती है। सभी पंचागों में भी गणना के लिए विंशोत्तरी दशा की तालिकांए दी हुई होती हैं।
पिछली बार हमनें जाना था कि हर ग्रह की दशा की अवधि निश्चित है। जैसे सूर्य की छह साल, चंद्र की 10 साल, शनि की 19 साल आदि। कुल दशा अवधि 120 वर्ष की होती है। आपको मालूम है कि जन्म के समय चन्द्र जिस ग्रह के नक्षत्र में होता है, उस ग्रह से दशा प्रारम्भ होती है। दशा कितने वर्ष रह गयी इसके लिए सामान्य अनुपात का इस्तेमाल किया जाता है।
माना कि जन्म के समय चन्द्र कुम्भ राशि के 10 अंश पर था। हम पिछले बार की तालिका से जानते हैं कि कुम्भ की 6 अंश 40 कला से 20 अंश तक शतभिषा नक्षत्र होता है। अब अगर चन्द्र कुम्भ के 10 अंश पर है, इसका मतलब चन्द्र शतभिषा नक्षत्र की 3 अंश 20 कला पार कर चुका है और 10 अंश पार करना बाकी है। राहु की कुल दशा अवधि 18 वर्ष होती है। अब अनुपात के हिसाब से -
अगर 13 अंश 20 कला बराबर हैं 18 वर्ष के, तो
3 अंश 20 कला बराबर होंगे = 18 / 13 अंश 20 कला X 3 अंश 20 कला
= 4.5 वर्ष
= 4 वर्ष 6 माह
अत: हम कह सकते हैं कि जन्म के समय राहु की दशा 4 वर्ष 6 माह बीत चुकी थी। चंकि राहु की कुल दशा 18 वर्ष की होती है अत: 13 वर्ष 6 माह की दशा रह गई थी।
जन्म के समय बीत चुकी दशा को भुक्त दशा और रह गई दशा को भोग्य दशा (balance of dasa) कहते हैं। एक बार फिर बता दूं कि पंचाग आदि में विंशोत्तरी दशा की तालिकाएं दी हुई होती हैं अत: हाथ से गणना की आवश्यकता नहीं होती।
जैसा कि पहले बताया गया, हर ग्रह की महादशा में फिर से नव ग्रह की अन्तर्दशा होती हैं। हर अन्तर्दशा में फिर से नव ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा और प्रत्यन्तर्दशा के अन्दर सूक्ष्म दशाएं होती हैं। जिस ग्रह की महादशा होती है, उसकी महादशा में सबसे पहले अन्तर्दशा उसी ग्रह की होती है। उसके बाद उस ग्रह की दशा आती है जो कि दशाक्रम में उसके बाद निर्धारित हा। उदाहरण के तौर पर, राहु की महादशा में सबसे पहले राहु की खुद की अन्तर्दशा आएगी। फिर गुरूवार की, फिर शनि की इत्यादि।
अन्तर्दशा की गणना भी सामान्य अनुपात से ही की जाती है। जैसे राहु की महादशा कुल 18 वर्ष की होती है। अत: राहु की महादशा में राहु की अन्तर्दशा 18 / 120 X 18 = 2.7 वर्ष यानि 2 वर्ष 8 माह 12 दिन की होगी। इसी प्रकार राहु में गुरु की अन्तर्दशा 18/ 120 X 16 = 2.4 यानि 2 वर्ष 4 माह 24 दिन की होगी।
इस गणना को ठीक से समझना आवश्यक है। इस बार के लिए बस इतना ही।
इस बार हम जानेंगे की दशाफल का निर्धारण कैसे करें। विंशोत्तरी दशा काल निर्धारण का अति महत्वपूर्ण औजार है। दशाफल अर्थात किस दशा में हमें क्या फल मिलेगा। दशाफल निर्धारण के लिए कुछ बातें ध्यान रखने योग्य हैं -
1- सर्वप्रथम तो यह कि किसी भी मनुष्य को वह ही फल मिल सकता है जो कि उसकी कुण्डली में निर्धारित हो। उदाहरण के तौर पर अगर किसी की कुण्डली में विवाह का योग नहीं है तो दशा कितनी भी विवाह देने वाली हो, विवाह नहीं हो सकता।
2- कितना फल मिलेगा यह ग्रह की शुभता और अशुभता पर निर्भर करेगा। ग्रहों की शुभता और अशुभता कैसे जानें इसकी चर्चा हम 'फलादेश के सामान्य नियम' शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके हैं, जहां हमनें 15 नियम दिए थे। उदाहरण के तौर पर अगर किसी दशा में नौकरी मिलने का योग है और दशा का स्वामी सभी 15 दिए हुए नियमों के हिसाब से शुभ है तो नौकरी बहुत अच्छे वेतन की मिलेगी। ग्रह शुभ नहीं है तो नौकरी मिली भी तो तनख्वाह अच्छी नहीं होगी।
3- कोई भी दशा पूरी तरह से अच्छी या बुरी नहीं होती है। जैसे किसी व्यक्ति को किसी दशा में बहुत अच्छी नौकरी मिलती है परन्तु उसके पिता की मृत्यु हो जाती है तो दशा को अच्छा कहेंगे या बुरा? इसलिये दशा को अच्छा या बुरा मानकर फलादेश करने की बजाय यह देखना चाहिए कि उस दशा में क्या क्या फल मिल सकते हैं।
किसी दशा में क्या फल मिलेगा?दशाफल महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तर्दशा स्वामी ग्रहों पर निर्भर करता है। ग्रहों कि निम्न स्थितियों को देखना चाहिए और फिर मिलाजुला कर फल कहना चाहिए -1- ग्रह किस भाव में बैठा है। ग्रह उस भाव का फल देते हैं जहां वे बैठै होते हैं। यानी अगर कोई ग्रह सप्तम भाव में स्थित है और जातक की विवाह की आयु है तो उस ग्रह की दशा विवाह दे सकती है, यदि उसकी कुण्डली में विवाह का योग है।2- ग्रह अपने कारकत्व के हिसाब से भी फल देते हैं। जैस सूर्य सरकारी नौकरी का कारक है अत: सूर्य की दशा में सरकारी नौकरी मिल सकती है। इसी तरह शुक्र विवाह का कारक है। समान्यत: देखा गया है कि दशा में भाव के कारकत्व ग्रह के कारकत्व से ज्यादा मिलते हैं।
3- ग्रह किन ग्रहों को देख रहा है और किन ग्रहों से दृष्ट है। दृष्टि का असर भी ग्रहों की दशा के समय मिलता है। दशा के समय दृष्ट ग्रहों असर भी मिला हुआ होगा।4- सबसे महत्वपर्ण और अक्सर भूला जाने वाला तथ्य यह है कि ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी से बहुत अधिक प्रभावित रहता है। ग्रह वह सभी फल भी देता है जो उपरोक्त तीन बिन्दुओं के आधार पर ग्रह का नक्षत्र स्वामी देगा। उदाहरण के तौर पर अगर को ग्रह 'अ' किसी ग्रह 'ब' के नक्षत्र में है और ग्रह 'ब' सप्तम भाव में बैठा है। ऐसी स्थिति में ग्रह 'अ' कि दशा में भी विवाह हो सकता है, क्योंकि सप्तम भाव विवाह का स्थान है।5- राहु और केतु उन ग्रहों का फल देते हैं जिनके साथ वे बैठे होते हैं और दृष्टि आदि से प्रभावित होते हैं।6- महादशा का स्वामी ग्रह अपनी अन्तर्दशा में अपने फल नहीं देता। इसके स्थान पर वह पूर्व अन्तर्दशा के स्वयं के अनुसार संशोधित फल देता है।7- उस अन्तर्दशा में महादशा से संबन्धित सामान्यत: शुभ फल नहीं मिलते जिस अन्तर्दशा का स्वामी महादशा के स्वामी से 6, 8, या 12 वें स्थान में स्थित हो।
8- अंतर्दशा में सिर्फ वही फल मिल सकते हैं जो कि महादशा दे सके। इसी तरह प्रत्यन्तर्दशा में वही फल मिल सकते हैं जो उसकी अन्तर्दशा दे सके।