एक बार एक जिज्ञासु ने आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से पूछा, ‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पूर्व में किए पापों को क्षमा कर देते हैं?’ स्वामी जी ने उत्तर दिया, ‘कदापि नहीं। ईश्वर न्यायकारी हैं। यदि वह पाप क्षमा करेंगे, तो न्यायकारी कैसे रह जाएंगे? यदि इस धारणा को स्वीकार कर लिया जाए कि ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होकर अपने भक्तों के पाप कर्मों के क्षमा कर देंगे, तो मानव स्वच्छंद होकर पाप कर्मों में लगा रहेगा, जैसे राजा अगर अपराधियों के अपराध क्षमा करने लगे, तो अपराधी स्वच्छंद होकर अपराधों को अंजाम देने लगेगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।’
स्वामी दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं, ‘जीव अपने कर्मों में स्वतंत्र है, ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र। वह आगे लिखते हैं-यह भ्रांत धारणा है कि ईश्वर ही मनुष्य से तमाम कार्य करवाता है। मनुष्य अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार पाप व पुण्य कार्य करता है। अपने सामर्थ्यानुकूल कार्य करने में मनुष्य स्वतंत्र है, लेकिन जब वह अज्ञान, दुर्बुद्धि, कुसंग आदि विभिन्न कारणों से पाप करता है, तो ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर उसके फल भोगने पड़ते हैं।’ स्वामी जी लिखते हैं, ‘परमेश्वर पवित्र व न्यायकारी है। यदि परमेश्वर ही मनुष्यों से कार्य कराता, तो उससे पाप कर्म कैसे होता? परमेश्वर भला पाप की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं? मनुष्य स्वतंत्र होने के कारण स्वयं पाप करता है। परमात्मा मनुष्यों को उसके कर्मानुसार फल देता है।’ |
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