Wednesday, December 26, 2012

औषधियों की खेती से


औषधियों की खेती से


खेतों में उगता सोना
द विजय मनोहर तिवारी
नई पीढ़ी के किसानों ने नए जमाने की नई फसलों को अपनाते हुए एक नए युग का श्रीगणेश कर दिया है। वे खेती जैसे पिछड़े माने जाने वाले कार्य का कायाकल्प करने में लगे हैं। वे उच्च शिक्षित हैं और आत्मवि·श्वास व उत्साह से सराबोर भी। मौसम के मिजाज पर भी उनकी नजर है और बाजार की मांगों से भी वे भलीभांति परिचित हैं। बीते कल, आज और आने वाले कल पर उनकी पैनी नजर है। उनके खेतों में जाकर देखा जा सकता है कि वह जमाना गुजर चुका है जब लोग

मिश्रीलाल राजपूत-हाथों में सफेदमूसली,
चेहरे पर सफलता की चमक
बेपरवाही से बीज फेंककर आ जाते थे और फिर जैसी-तैसी फसलें काटने चले जाया करते थे। खेत की इंच-इंच जमीन से उपज की बारीक योजनाएं वे कुशल प्रबंधक की तरह क्रियान्वित कर रहे हैं। उन्हें खुशी है कि उनकी भूमि कहीं न कहीं भारतीय आयुर्वेद में वर्णित जड़ी बूटियों को उपजा रही है और रासायनिक उर्वरकों से भी मुक्त हो गई है। देखें, क्या कह रही हैं खेतों में चमकती सफलता की ये स्वर्ण गाथाएं...
भविष्य की संभावनाओं वाली कुछ प्रमुख फसलें
फसल का नाम फसल की प्रकृति संभावित आय हालांकि पिछले तीन वर्ष मध्यप्रदेश में वर्षा के हिसाब से काफी कमजोर रहे हैं।
(प्रति एकड़)
मेंथा एक वर्षीय फसल 25 से 35 हजार रुपए
(प्रति वर्ष तीन कटाइयां)
लेमनग्रास पांच वर्षीय फसल 25 से 30 हजार रुपए
(प्रति वर्ष 3 से 5 कटाइयां)
जामारोजा ,, ,,
जावा सिट्रोनेला ,, ,,
तुलसी तीन माह से एक वर्ष की फसल 10 से 25 हजार रुपए
पामारोजा 5 से 9 वर्ष की फसल 20 हजार रुपए
(एक से तीन कटाइयां)
अ·श्वगंधा 6 से 9 माह की फसल 8 से 10 हजार रुपए
सफेदमूसली एक वर्षीय फसल 50 से 60 हजार रुपए
आंवला बहुवर्षीय फसल 10 से 40 हजार रुपए
(पांच वर्ष बाद)
सर्पगंधा 18 माह की फसल 40 से 50 हजार रुपए
स्रोत : सेडमैप

इंदौर-खंडवा मार्ग पर चोरल के पास औषधीय पौधों के खेत और फसलों का अवलोकन करते हुए दूर-दूर से आए कृषक
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धामनोद के समीप पटलावद गांव के दो उत्साही भाई राम और मोहन पाटीदार अपनी 70 एकड़ भूमि पर मेंथा, जामारोजा, पामारोजा, लेमनग्रास, तुलसी, अ·श्वगंधा, सफेदमूसली व कौंच आदि की फसलें उपजा रहे हैं। इस क्षेत्र में लगभग 5 सौ एकड़ भूमि पर सौंफ और हल्दी की खेती होती है। अब तक सौंफ और हल्दी के पत्ते और डंठल फेंक दिए जाते थे। दोनों भाइयों ने अपने खेतों में स्थापित आसवन संयंत्र में दूर-दूर के खेतों से इस बहुमूल्य कचरे को लाकर तेल निकाला। राम-मोहन को यह पता था कि जिस पौधे में से सुगंध आए, उसमें निश्चित रूप से तेल की मात्रा होती है। सुगंध वस्तुत: तेल की ही होती है। यह औषधीय व सुगंधीय पौधों की खेती का आम सिद्धांत है, जिसकी जानकारी उन्हें प्रशिक्षण के दौरान हुई। बाजार में सौंफ और हल्दी के पत्तों से निकाला गया तेल सवा तीन सौ रुपए किलो के भाव से बिकता है।
हरदा के संजय सिंह कुशवाहा और भोपाल के पास खजूरीकलां के मिश्रीलाल राजपूत की खेती भी काफी चर्चित हो रही है। इन युवा किसानों की फसल विदेशों को निर्यात की गई है। इनके यहां से 6-6 टन लेमनग्रास की पत्तियां ब्रिटेन और फ्रांस भेजी गई हैं। संजय 45 एकड़ में लेमनग्रास के अलावा जामारोजा और सिट्रोनेला की खेती कर रहे हैं और मिश्रीलाल 38 एकड़ में सफेदमूसली, जामारोजा और लेमनग्रास उगा रहे हैं। दोनों ने ही 1917 में उद्यमिता विकास केन्द्र (म.प्र.) से औषधीय और सुगंधीय फसलों की कृषि का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। भोपाल के निकट बसे मिश्रीलाल की उपलब्धियों की इतनी चर्चा है कि मध्यप्रदेश विधानसभा के अधिकांश सदस्य उनके खेतों को देखने आ चुके हैं।
इंदौर के पास चोरल में राजीव सोढ़ी 40 एकड़ में सफेदमूसली, लेमनग्रास, पामारोजा, जामारोजा और तुलसी की खेती कर रहे हैं। इन्हें खेती का कोई पैतृक अनुभव नहीं रहा है। लेकिन मीडिया से जानकारी पाकर अपने स्थापित उद्योग से वे खेतों की ओर मुड़ गए और आज जड़ी-बूटियों की खेती में सफल किसान साबित हुए हैं। उनके खेत दूसरे किसानों के लिए जानकारियों का एक केन्द्र बन गए हैं, जहां दूर-दूर के किसान नई फसलों के बारे में जानने उनके पास आते हैं। उन्होंने एस.वी. हेल्दी हब्र्स इंडिया के नाम से अपनी फसलों से कुछ स्वास्थ्यवद्र्धक उत्पाद भी बाजार में उतार दिए हैं। वे अब इन फसलों की खेती का प्रशिक्षण देने देशभर में जाते हैं। श्री सोढ़ी मूलत: व्यायामशालाओं में प्रयोग होने वाले उपकरणों की एक निर्माण इकाई संचालित करते रहे हैं। बचपन से ही इनके मन में कुछ नया करने की प्रवृत्ति विद्यमान थी, इसलिए इंदौर में उद्यमिता विकास केन्द्र द्वारा आयोजित एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में इन्होंने भाग लिया और कुछ खेतों में प्रयोग के तौर पर जुट गए। केवल तीन वर्षों में ही उनका नाम इस क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गया। कितने एकड़ में कौन है?
पौधे का नाम क्षेत्रफल
सफेद मूसली 2000 एकड़
लेमनग्रास 1000 ,,
जामारोजा 400 ,,
तुलसी 300 ,,
पामारोजा 100 ,,
मेंथा 300 ,,
अ·श्वगंधा 200 ,,
आंवला 200 ,,
अन्य- सिट्रोनेला,कालमेघ, 500 ,,
सतावर, चंद्रशूर आदि
कुल क्षेत्रफल 5000 एकड़ (लगभग) स्रोत : सेडमैप
छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के कोंडा गांव का नाम लिए बगैर औषधीय सुगंधीय फसलों की कहानी पूरी नहीं होती। यहां के राजाराम त्रिपाठी देश के पहले ऐसे किसान बन गए हैं, जिन्हें खेती के लिए किसी बैंक ने एक करोड़ आठ लाख रुपए की सहायता प्रदान की हो। वे इसके पहले भी 21 लाख रुपए की वित्तीय सहायता लेकर निर्धारित समय से पूर्व लौटाते हुए अपनी साख बना चुके हैं। करीब सौ एकड़ भूमि पर वे मुख्यत: सफेदमूसली, अ·श्वगंधा व सर्पगंधा आदि की फसलें उपजा रहे हैं। इस खेती में लगे दूसरे किसानों की ही तरह वे भी उच्च शिक्षित हैं। यही नहीं, वे तो बैंक प्रबंधक की नौकरी छोड़कर स्थाई रूप से अपने पैतृक कार्य यानी खेती में आ जुटे हैं। उनके खेतों में कई वनवासी परिवारों को रोजगार भी मिला है और जिज्ञासु व प्रयोगधर्मी कृषकों के लिए पौधशाला भी तैयार है। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी उनके इस प्रयोग को सराहा है। इस खेती में हाल ही में उतरे विदिशा के विजयपालसिंह राजपूत को भी एक बैंक ने 24 लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी है। विदिशा के समीप ही एक छोटी-सी जगह है- गुलाबगंज। श्री सतपालसिंह बघेल यही के हैं। उनकी खेती बहुत कम है। यहां तक कि उन्हें दो समय की रोटी के लिए भी मेहनत मजदूरी करनी पड़ रही थी। एक बार शासकीय योजनाओं में मिलने वाले ऋण की जानकारी लेने वे उद्योग केन्द्र गए और वहीं उन्हें औषधीय और सुगंधीय पौधों की लाभप्रद कृषि की जानकारी मिली। केवल चार एकड़ भूमि उनके पास थी, लेकिन अथक प्रयासों और असीम धैर्य का फल उन्हें मिला है। अब वे अपने आसवन संयंत्र के साथ 20 एकड़ क्षेत्र में अपनी भावी योजनाओं को क्रियान्वित कर रहे हैं। अपने आसपास के किसानों के लिए वे एक प्रेरणास्रोत बन गए हैं।
नए जमाने की इस नई फसल की खेती में लगे उच्च शिक्षा प्राप्त उत्साही युवाओं की यह सूची काफी लंबी है। निश्चित ही यह प्रश्न पैदा होता है कि इस अभियान ने कैसे गति पकड़ी और कामयाबी की इन कथाओं के पीछे का सूत्रधार कौन है? दस वर्ष पहले मध्यप्रदेश के खेतों में यह शुरुआत हुई थी और इसके सूत्रधार थे, उद्यमिता विकास केन्द्र, म.प्र. (सेडमैप) के मुख्य समन्वयक डा. गुरपालसिंह जरयाल। उनके समर्पित प्रयासों से अब तक मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में एक बड़ा उद्यमिता परिवार आकार ले चुका है। उनके मार्गदर्शन में अब तक लगभग दो सौ प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित हुए हैं, जिनमें 6 हजार से अधिक युवाओं ने प्रशिक्षण लिया है। इनमें से ही वे युवा निकले हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत और लगन से देश के कृषि मानचित्र पर सफलताओं की नई गाथाएं लिख दी हैं। यही युवा दूसरे प्रांतों में इस खेती के गुर सिखाने जाते हैं और दूसरे प्रांतों के जानकार यहां आते हैं। अनेक युवा ऐसे हैं जो महाविद्यालयों और वि·श्वविद्यालयों से ऊंची-ऊंची डिग्रियां प्राप्तकर निजी या शासकीय सेवाओं की तुलना में खेती को हेय दृष्टि से देखते थे। लेकिन कुछ नया करने की चाह उन्हें इस ओर ले आई। जिनके पास पैतृक कृषि भूमि और पारिवारिक कृषि आधार था, उनके लिए यह मार्ग सोने पे सुहागा सिद्ध हुआ। लेकिन कुछ विरले ऐसे भी हैं जिन्होंने कृषि का कोई आधार या अनुभव नहीं होने पर भी उल्लेखनीय कार्य करके दिखाया है।
कहां है इनकी खपत?
मेंथा- इसके सुगंधित तेल का उपयोग पान मसाला, सर्दी-खांसी की दवाओं आदि विभिन्न प्रकार की औषधियों, च्यूंगम, टॉफी और बिस्कुट आदि के निर्माण में होता है।
पामारोजा- अगरबत्ती, सुगंधित साबुन, सुगंधित प्रसाधन सामग्री के निर्माण, सुगंधित तंबाकू, घुटनों व जोड़ों के दर्द की मालिश, मच्छर भगाने वाली अगरबत्तियों तथा कई अन्य दवाओं में उपयोगी।
सिट्रोनेला- साबुन व क्रीम के निर्माण में सुगंध हेतु, ओडोमास व "एंटीसेप्टिक क्रीम' तथा सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण के अलावा अन्य सुगंधित रसायनों के निर्माण में उपयोगी।
लेमनग्रास- उच्च कोटि के इत्र, विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधन व साबुनों में तथा विटामिन "ए' तैयार करने में।
तुलसी- इसकी विभिन्न प्रजातियों से प्राप्त तेल एवं अवयवों का उपयोग सुगंधित पदार्थों, सर्दी की औषधियों, खांसी एवं कफ की दवाओं, "कन्फैक्शनरी' उद्योग तथा टूथपेस्ट आदि के निर्माण में होता है।
सफेद मूसली- इस बूटी का इस्तेमाल "टॉनिक', च्यवनप्राश, माताओं में दूधवृद्धि, प्रसवोपरांत की बीमारियों के उपचार तथा "शारीरिक शिथिलता' को दूर करने में होता है।
मश्कदाना- डिहाइड्रेशन, पेट संबंधी विकार, वमन, पेशाब संबंधी विकारों, खाज-खुजली, ह्मदय रोग की औषधियों के अलावा शक्कर उद्योग में अत्यंत उपयोगी।
कलिहारी- गर्भाशय संबंधी रोगों में अचूक औषधि, इसकी जड़ का रस उदरशूल, बवासीर, कुष्ठ रोग व पेट के कीड़े निकालने में उपयोगी। धन्वंतरि सम्मान से विभूषित डा. जरयाल की नजर में नई पीढ़ी के ये किसान दरअसल दूसरी हरित क्रांति के कर्णधार हैं। वे कहते हैं कि हमें यह धारणा मिटानी होगी कि गांवों में कुछ नहीं रखा और खेती अनपढ़-अशिक्षितों का काम है। औषधीय और सुगंधीय फसलों की खेती में लगे किसानों ने इस धारणा को गलत सिद्ध कर दिया है। डा. जरयाल को उनके प्रयासों के लिए हाल ही में प्रतिष्ठित मेग्नम पुरस्कार के लिए भी चुना गया है। पिछले दिनों "रिलायंस लाइफ साइंसेस' ने भी इन किसानों के द्वार पर दस्तक दी है और उनकी फसल को खरीदने का आकर्षक प्रस्ताव रखा है। हर माह अकेले लेमनग्रास के दो टन तेल की खरीद का प्रस्ताव है। जबकि लगभग पांच हजार एकड़ के विशाल क्षेत्र में फैल चुकने के बाद भी इस खेती से लेमनग्रास का तेल, मांग की तुलना में काफी कम आ रहा है।
उद्यमिता विकास केन्द्र, म.प्र. ने एक बेहद उपयोगी पुस्तक भी प्रकाशित की है अग्रदूत- इस पुस्तक में ऐसे चुने हुए किसानों की सफलता की कहानियां हैं, जिन्होंने पिछले पांच-सात वर्षों में अपने खेतों में चमत्कार करके दिखाया है। इसके अलावा दो सौ से अधिक अन्य सफल किसानों की विस्तृत जानकारी उनके नाम-पतों सहित प्रकाशित की है। यह पुस्तक मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में काफी लोकप्रिय है। उद्यमिता विकास केन्द्र ने एक कदम और आगे बढ़कर विभिन्न बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थानों से भी संपर्क साधा है और उनके प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए हैं। इसके पीछे उद्देश्य यह है कि ये संस्थाएं इन किसानों को सहायता देने के लिए आगे आएं। कुछ संस्थाओं ने इस ओर गहरी रुचि लेते हुए किसानों को आर्थिक सहयोग भी दिया है।
केन्द्र ने सफल कृषकों और वित्तीय संस्थाओं के बीच संवाद कायम किया है। इसके लाभ भी कृषकों को मिल रहे हैं। वस्तुत: खेतों के बारे में धारणा बदलने का वक्त आ गया है। वि·श्वास न हो तो इन अंत:क्षेत्रों www.raviagrotech.com, www.mdh.herbs.com पर जाइए जिनमें राजाराम त्रिपाठी या मिश्रीभाई जैसे युवा किसान अपने खेतों के बारे में कुछ बता रहे हैं। निश्चित ही सफलता की ये कहानियां केवल भाग्य या लगन की ही नहीं, बल्कि योग्यता और कठोर मेहनत की भी है!द
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तुलसी माला ने बनाया आत्मनिर्भर


रोज़मर्रा की इन गतिविधियों से घरेलू उपभोग के लिए तो संसाधन जुटाए जा सकते थे, लेकिन महंगाई व सीमित संसाधनों को देखते हुए उसके आधार पर बच्चों के बेहतर भविष्य की ख़ातिर अच्छी शिक्षा के लिए धन जुटाना मुश्किल हो रहा था. महिलाओं की आर्थिक स्थिति इतनी कमज़ोर थी कि अपने बच्चों को स्कूल भेज पाना और उसका ख़र्च उठाना मुश्किल हो रहा था.
भरतपुर जिले के बहताना गांव की महिलाओं की ज़िंदगी तब तक गांव-देहात की सामान्य महिलाओं की तरह ही हुआ करती थी, जब तक कि उन्होंने तुलसी माला उत्पादन के गुर नहीं सीख लिए थे. आज बहताना की महिलाएं आत्मनिर्भरता की ओर क़दम बढ़ा रही हैं.
राजस्थान के भरतपुर जिले के डीग तहसील के बहताना गांव की महिलाओं की ज़िंदगी आम ग्रामीण महिलाओं से इतर बिल्कुल नहीं थी. इसके बावजूद, ग्रामीण परिवेश में रहकर भी तमाम सामाजिक वर्जनाओं के बीच आज बहताना की महिलाओं ने ख़ुद को आत्मनिर्भर बनाने का रास्ता खोज लिया है. सामान्यत: अन्य गांवों की तरह अधिकांश स्थानीय महिलाओं का समय खेती एवं पशुपालन जैसे कामों में बीत जाता था. रोज़मर्रा की इन गतिविधियों से घरेलू उपभोग के लिए तो संसाधन जुटाए जा सकते थे, लेकिन महंगाई व सीमित संसाधनों को देखते हुए उसके आधार पर बच्चों के बेहतर भविष्य की ख़ातिर अच्छी शिक्षा के लिए धन जुटाना मुश्किल हो रहा था. महिलाओं की आर्थिक स्थिति इतनी कमज़ोर थी कि अपने बच्चों को स्कूल भेज पाना और उसका ख़र्च उठाना मुश्किल हो रहा था. लेकिन जब से बहताना की महिलाओं ने अपने घर में ही तुलसी माला निर्माण का कार्य शुरू किया है, तब से उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आने लगा है. अब बहताना गांव की महिलाएं आर्थिक दृष्टि से तो आत्मनिर्भर हुई ही हैं, साथ ही परिवार में उनका सम्मान भी बढ़ा है. आज बहताना गांव में क़रीब 150 महिलाएं तुलसी माला बनाकर प्रति माह चार से पांच हज़ार रुपये आसानी से कमा रही हैं. इतना ही नहीं, इस व्यवसाय के लिए उन्हें अपने गांव से बाहर भी नहीं जाना पड़ता. कच्चा व तैयार किया हुआ माल व्यापारी स्वयं ही उपलब्ध करा जाते हैं और मज़दूरी भी उसी समय दे जाते हैं.
तीन वर्ष पूर्व स्वयंसेवी संस्था लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन ने डीग तहसील के बहताना गांव में उपलब्ध संसाधनों एवं लोगों की रुचि की जानकारी जानने के लिए एक सर्वे किया. इसमें यह बात सामने आई कि उत्तर प्रदेश के गोवर्धन, मथुरा एवं वृंदावन जैसे धार्मिक स्थलों के पास होने के कारण बहताना गांव में धार्मिक महत्व पर आधारित उद्यमीय प्रयोग आसानी से सफल हो सकते हैं. इसी बात को ध्यान में रखते हुए काम शुरू कर दिया गया. सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के जैंत गांव से तुलसी माला निर्माण का प्रशिक्षण देने वाले नेमचंद लोधा को बहताना की महिलाओं को प्र्रशिक्षित करने के लिए बुलाया गया और दस दिन का गहन प्रशिक्षण महिलाओं को दिलाया गया. शुरू में तो महिलाएं खुलकर प्रशिक्षण में शामिल होने से झिझक रही थीं और स़िर्फ 10 महिलाएं ही आगे आईं. प्रशिक्षण के बाद इन महिलाओं के सामने अपना स्वरोज़गार संचालित करने के लिए आर्थिक संसाधनों की ज़रूरत महसूस हुई तो संस्था ने महिलाओं को राष्ट्रीय महिला कोष से प्रत्येक को 10-10 हज़ार रुपये का ऋण आसान किश्तों में उपलब्ध कराया. इस ऋण से महिलाओं ने तुलसी माला निर्माण के लिए मशीन ख़रीदी और जैंत गांव से कच्चा माल लाकर कार्य शुरू किया. लेकिन प्रारंभिक दिनों में इन महिलाओं को कोई ख़ास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि महिलाएं बड़ी मुश्किल से पूरे दिन में पांच से सात मालाएं बना पाती थीं. लेकिन इन महिलाओं ने हार नहीं मानी और पूरे मनोयोग से कार्य जारी रखा. धीरे-धीरे माला निर्माण की गति बढ़ती गई और अब वे प्रतिदिन 40 मालाएं बना रही हैं. इससे उन्हें प्रतिमाह चार से पांच हज़ार रुपये की आसानी से आय हो रही है. इस आय से महिलाओं ने अपने घर के ज़रूरी ख़र्चे चलाना तो प्रारंभ किया ही है, साथ ही सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा के लिए ग़ैर सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू भी किया है.
तुलसी माला में विपणन की समस्या नही
बहताना गांव चूंकि गोवर्धन, मथुरा, वृंदावन, कामां आदि जैसे धार्मिक स्थलों के पास है, इसलिए इन क्षेत्रों में तुलसी माला की अधिक बिक्री होती है. स्थिति यह है कि जितनी तुलसी माला तैयार होती है, उसे व्यापारी ख़रीदने के लिए तुरंत तैयार रहते हैं. यहां तक कि कुछ व्यापारी तो तुलसी माला तैयार कराने के लिए अग्रिम राशि भी दे देते हैं. तुलसी माला निर्माण कराने वाले व्यापारी बहताना गांव की महिलाओं को कच्चा माल एवं तैयार माल को ख़रीदने स्वयं ही गांव में जाते हैं, जिससे इन महिलाओं के सामने तैयार माल के विपणन जैसी कोई समस्या सामने नहीं रहती. अभी तक तुलसी माला निर्माण में काम आने वाली तुलसी के डंठल जैंत गांव से 10 से 20 रुपये किलो की दर से ख़रीदे जा रहे हैं, लेकिन लुपिन संस्था ने इस समस्या से निजात दिलाने के लिए गांव में ही तुलसी की खेती शुरू कराई है. इसमें तुलसी के पत्तों की ख़रीद आयुर्वेदिक कंपनियों द्वारा की जाती है और डंठलों का उपयोग तुलसी माला निर्माण में किया जाता है.
50 रुपये तक की होती है तुलसी माला
तुलसी माला में दाने जितने छोटे होते हैं, उसके दाम उतने ही अधिक मिलते हैं. इसलिए कि छोटे दाने तैयार करने में समय अधिक लगता है और इसका कच्चा माल भी महंगा मिलता है. गांव में अधिकतर महिलाएं छोटे दाने की मालाएं बनाती हैं, जिसके लिए बैटरी से चलने वाली एक मशीन की ज़रूरत होती है जो क़रीब 450 रुपये में आसानी से मिल जाती है.
सामान्य मालाओं के साथ-साथ अब तुलसी माला बनाने वाली महिलाओं ने तुलसी राखी एवं सजावटी मालाओं का निर्माण भी शुरू कर दिया है. इसमें तुलसी के दानों के साथ-साथ पीतल या तांबे के दाने भी मालाओं में लगाए जा रहे हैं. इससे इन मालाओं के दाम और अधिक बढ़ गए हैं तथा महिलाओं के मुना़फे में भी वृद्धि हो रही है. गांव की तुलसी माला बनाने वाली श्रीमती रामपति के मुताबिक रक्षाबंधन पर तुलसी की राखियां बनाने का 25 हज़ार का आर्डर मिला था. पिछले ही दिनों महाराष्ट्र के पंडरपुर क़स्बे से तीन लाख रुपये की तुलसी मालाओं का आदेश मिला है. ये मालाएं वहां एक धार्मिक उत्सव में वितरित की जाएंगी.
दूसरे गांवों में भी हो रहा है विस्तार
बहताना गांव में महिलाओं की तुलसी माला निर्माण से आई समृद्धि को देखकर इस गांव के आसपास के क़रीब आधा दर्जन गांवों में तुलसी माला निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है और वहां भी यह कार्य तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. तुलसी माला निर्माण का कार्य सिनसिनी, चुचावटी, सोनगांव, खेरिया आदि में शुरू हो चुका है जिनमें भी लुपिन संस्था ने तुलसी माला निर्माण के प्रशिक्षण आयोजित किए हैं. यह नितांत सत्य है कि स्थानीय आवश्यकता एवं उपलब्ध संसाधनों पर आधारित शुरू किया गया व्यवसाय निश्चय ही सफल होता है. साथ ही जिन कामों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है, वे कार्य सफलता के द्वार पर अधिक पहुंच पाते हैं. बहताना गांव में शुरू हुआ तुलसी माला निर्माण का कार्य निश्चय ही धार्मिक स्थलों के आस-पास के गांवों में आर्थिक समृद्धि का कारक बनेगा.