पुण्यात्मा की पहचान स्वामी रामकृष्म परमहंस अपने भक्तों से धर्म चर्चा कर रहे थे। विवेकानंद ने प्रश्न किया, ‘सच्चा पुण्यात्मा कौन है?’ स्वामी जी ने पुराण का श्लोक सुनाते हुए बताया, परतापच्छिदो ये तु चंदना इन चंदनाः परोपकृतये ये तु पीड़यन्ते कृतिनो हिते। यानी, जो व्यक्ति चंदन वृक्ष की भांति दूसरों के ताप को दूर करके उन्हें आनंदित करते हैं और जो परोपकार के लिए स्वयं कष्ट उठाते हैं, वे ही पुण्यात्मा हैं।
परमहंस जी अपने उपदेश में कहा करते थे, ‘जो दूसरों के दुखों का नाश करते हैं, पीड़ितों के दुख दूर करने के लिए जो अपने प्राणों का न्योछावर करने को तैयार रहते हैं, वे ही सच्चे संत हैं। साधु पुरुष हर क्षण दूसरों के सुख से ही सुखी होते हैं।’ उनसे किसी ने पूछा, ‘मानव के लिए सामान्य धर्म क्या है?’
उन्होंने बताया, ‘किसी के भी प्रति वैर भाव न रखना, मन, वाणी तथा कर्म से किसी का अहित न करना, सत्य बोलना, इंद्रियों का संयम करना, दान, दया व शांति जैसे सद्गुणों का पालन करना- ये मानव मात्र के लिए सामान्य धर्म हैं।’स्वामी रामकृष्ण के इन प्रवचनों से प्रभावित होकर ही उनके शिष्य विवेकानंद दरिद्रों में साक्षात नारायण के दर्शन करने और गरीबों को भगवान मानकर उनकी सेवा करने की प्रेरणा दिया करते थे।भगवान महावीर ने कहा था, ‘किसी को शस्त्र के प्रहार से घायल कर देना ही हिंसा नहीं है, बल्कि कर्कश दुर्वचन बोलकर उसके हृदय को दुखी करना उससे बड़ी हिंसा है। अतः भूलकर भी मन, वचन और कर्म से किसी को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए। भक्त की कसौटी . एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, ‘आपको किन-किन सद्गुणों वाला भक्त प्रिय है?’ श्रीकृष्ण ने बताया, ‘जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता, सबसे सद्भाव व मैत्री भाव रखता है, सब पर करुणा करता है, क्षमाशील है, ममता और अहंकार से रहित है, सुख-दुख में एक समान रहता है, वह भक्त मुझे प्रिय है।’
‘स्वर्ग के अधिकारी कौन होते हैं?’ इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘जो दान, तपस्या, सत्य भाषण और इंद्रिय संयम द्वारा निरंतर धर्माचरण में लगे रहते हैं, ऐसे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो माता-पिता की सेवा करते हैं तथा भाइयों के प्रति स्नेह रखते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं।’
हिंसा व अन्य दुष्प्रवृत्तियों को पतन का कारण बताते हुए श्रीकृष्ण ने कहा, ‘हे महाबाहु अर्जुन, प्राणियों की हिंसा करनेवाले, लोभ-मोह में फंसकर जीवन निरर्थक करनेवाले व्यक्ति का पतन हो जाता है। लेकिन जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न आकांक्षा करता है, उसे सदा संन्यासी, महात्मा ही समझना चाहिए, क्योंकि राग-द्वेष आदि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।’
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘जिसके चित्त में असंतोष व अभाव का बोध है, वही दरिद्र है। जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है, वह समर्थ-स्वतंत्र है और सदा शांति की अनुभूति करता है।’ भक्तों को महत्व देते हुए श्रीकृष्ण ने बताया, ‘भक्त के पीछे-पीछे मैं निरंतर यह सोचकर घूमा करता हूं कि उसके चरणों की धूल उड़कर मुझ पर पड़ेगी और मैं पवित्र हो जाऊंगा।’ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ज्ञान का अहंकार . एक युवा साधक ब्रह्मनिष्ठ संत पथिक जी महाराज के सत्संग के लिए पहुंचे। वह बातचीत के दौरान बार-बार कहते थे, ‘मैं बहुत धनी परिवार से हूं। मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और गीता, महाभारत, पुराणों आदि का गहन अध्ययन किया है।’
संत पथिक जी ने कहा, ‘यदि वास्तव में जिज्ञासा लेकर आए हो और धर्म-अध्यात्म का मर्म समझने की तृष्णा है, तो सबसे पहले इस अहंकार का त्याग करो कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो। अहंकार के रहते तुम्हें कोई कुछ नहीं सिखा सकता।’ उन्होंने कुछ क्षण रुककर कहा, उपनिषद में ऋषि घोषित करते हैं- जो यह कहता है कि मैं ज्ञानी हूं और बहुत कुछ जानता हूं, उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह घोर अज्ञान के अंधकार में भटक रहा है। न जानने का बोध ज्ञान की गुरुता का सर्वोपरि सम्मान है। वह परमात्मा के प्रति समर्पण भी है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘ज्ञान का अहंकार किसी से कुछ सीखने ही नहीं देता। जो मानव विनम्रतापूर्वक खुद को अज्ञानी मानकर ज्ञान प्राप्त तत्वदर्शी की शरण लेता है, वही आत्मा-परमात्मा व ज्ञान-अज्ञान के भेद को जान सकता है। जिनकी बुद्धि स्थित है और जिसका मन कहीं अटका नहीं है, ऐसा विनयी जिज्ञासु ही ज्ञान के सागर में गोते लगाकर मोती ढूंढ सकता है। सबसे पहले किसी भी प्रकार के अहंकार से शून्य हो जाना जरूरी है।’
अज्ञानता में तुलसीदास जी को अपनी स्त्री में ही सुख व प्रेम दिखाई देता था, पर जब ज्ञान चक्षु खुल गए, तो उनके मुख से निकला, सियाराममय सब जग जानी ।
मन के जीते जीत भारतीय संस्कृति में शुद्धता-पवित्रता को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है। कहा भी गया है, ‘अद्भिर्शात्राणि शुध्यति मनः सत्येन शुध्यति विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेत शुध्यति। ’ यानी, जल से स्नान करने से शरीर, सत्याचरण से मन, विद्या और तप से आत्मा तथा ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है। शास्त्रकार मन को सबसे बड़ा तीर्थ कहते हैं, ‘स्व मनो विशुद्धम्’ अर्थात, अपना विशुद्ध मन सर्वोपरि तीर्थ है।
परमहंस जी अपने उपदेश में कहा करते थे, ‘जो दूसरों के दुखों का नाश करते हैं, पीड़ितों के दुख दूर करने के लिए जो अपने प्राणों का न्योछावर करने को तैयार रहते हैं, वे ही सच्चे संत हैं। साधु पुरुष हर क्षण दूसरों के सुख से ही सुखी होते हैं।’ उनसे किसी ने पूछा, ‘मानव के लिए सामान्य धर्म क्या है?’
उन्होंने बताया, ‘किसी के भी प्रति वैर भाव न रखना, मन, वाणी तथा कर्म से किसी का अहित न करना, सत्य बोलना, इंद्रियों का संयम करना, दान, दया व शांति जैसे सद्गुणों का पालन करना- ये मानव मात्र के लिए सामान्य धर्म हैं।’स्वामी रामकृष्ण के इन प्रवचनों से प्रभावित होकर ही उनके शिष्य विवेकानंद दरिद्रों में साक्षात नारायण के दर्शन करने और गरीबों को भगवान मानकर उनकी सेवा करने की प्रेरणा दिया करते थे।भगवान महावीर ने कहा था, ‘किसी को शस्त्र के प्रहार से घायल कर देना ही हिंसा नहीं है, बल्कि कर्कश दुर्वचन बोलकर उसके हृदय को दुखी करना उससे बड़ी हिंसा है। अतः भूलकर भी मन, वचन और कर्म से किसी को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए। भक्त की कसौटी . एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया, ‘आपको किन-किन सद्गुणों वाला भक्त प्रिय है?’ श्रीकृष्ण ने बताया, ‘जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता, सबसे सद्भाव व मैत्री भाव रखता है, सब पर करुणा करता है, क्षमाशील है, ममता और अहंकार से रहित है, सुख-दुख में एक समान रहता है, वह भक्त मुझे प्रिय है।’
‘स्वर्ग के अधिकारी कौन होते हैं?’ इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘जो दान, तपस्या, सत्य भाषण और इंद्रिय संयम द्वारा निरंतर धर्माचरण में लगे रहते हैं, ऐसे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो माता-पिता की सेवा करते हैं तथा भाइयों के प्रति स्नेह रखते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं।’
हिंसा व अन्य दुष्प्रवृत्तियों को पतन का कारण बताते हुए श्रीकृष्ण ने कहा, ‘हे महाबाहु अर्जुन, प्राणियों की हिंसा करनेवाले, लोभ-मोह में फंसकर जीवन निरर्थक करनेवाले व्यक्ति का पतन हो जाता है। लेकिन जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न आकांक्षा करता है, उसे सदा संन्यासी, महात्मा ही समझना चाहिए, क्योंकि राग-द्वेष आदि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।’
भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘जिसके चित्त में असंतोष व अभाव का बोध है, वही दरिद्र है। जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है, वह समर्थ-स्वतंत्र है और सदा शांति की अनुभूति करता है।’ भक्तों को महत्व देते हुए श्रीकृष्ण ने बताया, ‘भक्त के पीछे-पीछे मैं निरंतर यह सोचकर घूमा करता हूं कि उसके चरणों की धूल उड़कर मुझ पर पड़ेगी और मैं पवित्र हो जाऊंगा।’ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ~~ ज्ञान का अहंकार . एक युवा साधक ब्रह्मनिष्ठ संत पथिक जी महाराज के सत्संग के लिए पहुंचे। वह बातचीत के दौरान बार-बार कहते थे, ‘मैं बहुत धनी परिवार से हूं। मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और गीता, महाभारत, पुराणों आदि का गहन अध्ययन किया है।’
संत पथिक जी ने कहा, ‘यदि वास्तव में जिज्ञासा लेकर आए हो और धर्म-अध्यात्म का मर्म समझने की तृष्णा है, तो सबसे पहले इस अहंकार का त्याग करो कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो। अहंकार के रहते तुम्हें कोई कुछ नहीं सिखा सकता।’ उन्होंने कुछ क्षण रुककर कहा, उपनिषद में ऋषि घोषित करते हैं- जो यह कहता है कि मैं ज्ञानी हूं और बहुत कुछ जानता हूं, उसे यह समझ लेना चाहिए कि वह घोर अज्ञान के अंधकार में भटक रहा है। न जानने का बोध ज्ञान की गुरुता का सर्वोपरि सम्मान है। वह परमात्मा के प्रति समर्पण भी है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘ज्ञान का अहंकार किसी से कुछ सीखने ही नहीं देता। जो मानव विनम्रतापूर्वक खुद को अज्ञानी मानकर ज्ञान प्राप्त तत्वदर्शी की शरण लेता है, वही आत्मा-परमात्मा व ज्ञान-अज्ञान के भेद को जान सकता है। जिनकी बुद्धि स्थित है और जिसका मन कहीं अटका नहीं है, ऐसा विनयी जिज्ञासु ही ज्ञान के सागर में गोते लगाकर मोती ढूंढ सकता है। सबसे पहले किसी भी प्रकार के अहंकार से शून्य हो जाना जरूरी है।’
अज्ञानता में तुलसीदास जी को अपनी स्त्री में ही सुख व प्रेम दिखाई देता था, पर जब ज्ञान चक्षु खुल गए, तो उनके मुख से निकला, सियाराममय सब जग जानी ।
~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ . दया धर्म का मूल महाराज युधिष्ठिर समय-समय पर ऋषियों के आश्रम में पहुंचकर उनसे सत्संग किया करते थे। एक बार वह महर्षि मार्कण्डेय जी के दर्शन के लिए पहुंचे। उन्होंने महामुनि से प्रश्न किया, ‘सर्वोत्तम धर्म और सर्वोत्तम ज्ञान क्या है?’ महर्षि ने बताया, आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम्। आत्मज्ञानं परं ज्ञानं सत्यं व्रत परं व्रतम्। यानी, क्रूरता का अभाव अर्थात दया सबसे महान धर्म है। क्षमा सबसे बड़ा बल है। सत्य सबसे उत्तम व्रत है और परमात्मा के तत्व का ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है। जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं में सुख न खोजकर परमात्मा को ही सुख का स्रोत मानकर सत्कर्मों व भक्ति में लगा रहता है, वह न कभी दुखी होता है और न ही निराश। अतः हृदय में दया व करुणा की भावना रखने वाला ही सबसे बड़ा धर्मात्मा और ज्ञानी है।
मुनि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘राजन तुम सभी प्राणियों को भगवान का स्वरूप मानकर उन पर दया करते रहो। जितेंद्रिय और प्रजा पालन में तत्पर रहकर धर्म का आचरण करो। यदि प्रमादवश तुमसे किसी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार हो गया, तो उसे अपने विनम्र व्यवहार से संतुष्ट कर दो।’
अहंकार को पतन का कारण बताते हुए मुनि कहते हैं, ‘मैं सबका स्वामी हूं’- ऐसे अहंकार कभी पास न आने देना। अपने को स्वामी नहीं सेवक समझने से ही राजा का कल्याण होता है। जो व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर सब के कल्याण की कामना करता है, उसके कल्याण के लिए स्वयं प्रभु भी तत्पर रहते हैं।’
मुनि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘राजन तुम सभी प्राणियों को भगवान का स्वरूप मानकर उन पर दया करते रहो। जितेंद्रिय और प्रजा पालन में तत्पर रहकर धर्म का आचरण करो। यदि प्रमादवश तुमसे किसी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार हो गया, तो उसे अपने विनम्र व्यवहार से संतुष्ट कर दो।’
अहंकार को पतन का कारण बताते हुए मुनि कहते हैं, ‘मैं सबका स्वामी हूं’- ऐसे अहंकार कभी पास न आने देना। अपने को स्वामी नहीं सेवक समझने से ही राजा का कल्याण होता है। जो व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर सब के कल्याण की कामना करता है, उसके कल्याण के लिए स्वयं प्रभु भी तत्पर रहते हैं।’
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विभिन्न संप्रदायों के नीति वचनों में कहा गया है कि मानव के उत्थान-पतन में मन की अहम भूमिका होती है। अतः मन को किसी भी प्रकार के लोभ, लालच, राग-द्वेष, ईर्ष्या तथा भोग की असीमित इच्छाओं की कलुषता से बचाए रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। सदैव सत्साहित्य का अध्ययन, सद्विचारों के चिंतन से मन को पवित्र बनाया जा सकता है। जिसका मन पवित्रता का अभ्यासी बन जाता है, उसकी वाणी और कर्म में एकरूपता होती है। कहा भी गया है, ‘मनयेकं वचस्येकं कर्मणयेकं महात्मनाम’ यानी, जो मन, वाणी और कर्म में एकरूप होते हैं, वही महात्मा हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि मन ऐसा सारथी है, जो इंद्रियरूपी अश्वों की नकेल पकड़कर प्राणि रूपी रथ का संचालन करता है। यदि मन पवित्र भावों से ओत-प्रोत हो, तो वह इंद्रियों को सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त करेगा। और यदि वह दूषित विचारों के प्रभाव में है, तो इंद्रियों को कुमार्ग की ओर ले जाएगा। ‘मन के हारे हार है- मन के जीते जीत’। पवित्र मन वाला, निश्छल हृदय व्यक्ति ही राष्ट्र व समाज का कल्याण कर सकता है।
~------------------------------------------------------------------ तृष्णा अनंत दुखदायी गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब शिष्य विदा होता था, तो गुरु उसे अंतिम उपदेश देते हुए धर्मशास्त्रों व नीतिशास्त्रों के सार से अवगत कराया करते थे। उसे बताया करते कि सदाचार और शील का पालन करते हुए लोक-परलोक को सफल बनाया जा सकता है।
आचार्य वशिष्ठ जी ने एक बार देखा कि उनका एक शिष्य साधन संपन्न होते हुए भी असीमित इच्छाओं के कारण धनाढ्यों के आगे गिड़गिड़ाने को बाध्य होता रहता है, तो उन्हें बहुत पीड़ा हुई। वशिष्ठ जी ने उस शिष्य को एकांत में उपदेश देते हुए कहा, ‘पुत्र, तृष्णा का का कभी अंत नहीं होता। यह विषबेल के समान हर क्षण बढ़ती ही रहती है। वर्षा ऋतु की अंधेरी रात के समान मन में अनंत विकार उत्पन्न करने वाली यह तृष्णा कभी शांत नहीं बैठने देती। तृष्णा से पीड़ित व्यक्ति दूसरों के सामने गिड़गिड़ाकर दीनता का परिचय देता रहता है। अतः सबसे पहले तृष्णा का त्याग करके संतोषरूपी गुण को दृढ़ता से अपनाना चाहिए।’ महर्षि वशिष्ठ योगवशिष्ठ में लिखते हैं, ‘तृष्णा से ग्रस्त लोग सूत के धागे में बंधे पक्षी के समान देश-विदेश में भटकते, शोक से जर्जर होकर अंततः काल को प्राप्त होते हैं। जैसे हिरण तिनकों से आच्छादित गड्ढे के ऊपर रखी गई हरी घास को चरने की इच्छा में गड्ढे में गिर जाता है, उसी प्रकार तृष्णा में लिप्त मूर्ख नरक में गिरता है।’ निश्चय ही जहां तृष्णारूपिणी काली रात नष्ट हो गई है, वहां शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति सत्कर्म बढ़ते हैं। अतः सबसे पहले तृष्णाओं का त्याग करना चाहिए। मार्गदर्शक कर्म योगी . . वेदांत के प्रकांड विद्वान, आडंबरों के प्रबल विरोधी और पाश्चात्य विश्व में हिंदू धर्म की सारगर्भित व्याख्या करने वाले प्रख्यात मनीषी स्वामी विवेकानंद ने स्वयं को न तो कभी तत्व जिज्ञासु की श्रेणी में रखा, न सिद्ध पुरुष माना और न कभी दार्शनिक ही कहा। उन्होंने जीवन में सदैव चरित्र निर्माण को प्रमुखता देने और सत्य बोलने पर बल दिया। उनका मानना था कि परोपकार और प्रेम ही जीवन है, जबकि संकोच व द्वेष मृत्यु। उन्हें अपने देशवासियों की स्थिति देखकर पीड़ा होती थी। अध्यात्म के पथ पर चलने वाला यह योगी उस मार्ग तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह इस देश की समग्र उन्नति चाहता था। कहने को वह शक्ति मार्ग के उपासक थे, लेकिन आधुनिक चिंतन उन्हें एक ऐसामनीषी बनाता था, जिसे भारत के सुखद भविष्य के रास्ते का पता था। वह हमारे पिछड़ेपन का कारण हमारी सोच को मानते थे। उनके मुताबिक, हमने उसी दिन से मरना शुरू कर दिया, जब से हम अन्यान्य जातियों से घृणा करने लगे। यह मृत्यु विस्तार के बिना किसी उपाय से रुक नहीं सकती, जो जीवन का गति नियामक है। दास जाति के दोष, पराधीनता के जन्म, पाश्चात्य विश्व के लोगों की सफलता और किसी राष्ट्र की दुर्बलता के कारणों का समय-समय पर अपने प्रवचनों व भक्तों को लिखे पत्रों में उन्होंने विस्तार से खुलासा किया है। उनका सपना था कि पराधीन भारत के बीस करोड़ लोगों में नवशक्ति का संचार हो, करोड़ों पददलित गरीबी, छल-प्रपंचों, ताकतवरों के अत्याचारों और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त हों तथा उनके जीवन में खुशहाली आए। इसके लिए उन्होंने ईश्वर पर भरोसा रखते हुए निःस्वार्थ भाव से चारित्रिक दृढ़ता के साथ कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। उनका स्पष्ट मत था कि प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईर्ष्या होता है और सद्भाव का अभाव पराधीनता उत्पन्न करता और उसे स्थायी बनाता है। जिनकी सदाचार संबंधी उच्चाभिलाषा मर चुकी है, जो भविष्य की उन्नति के लिए बिलकुल भी चेष्टा नहीं करते और भलाई करने वाले को दबाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं, उन मृत जड़ पिंडों के भीतर प्राण संचार कर पाना असंभव है। अमेरिकी और यूरोपीय नागरिक विदेश में भी अपने देशवासियों की सहायता करते हैं, जबकि हिंदू अपने देशवासियाें को अपमानित होते देख हर्षित होते हैं। विवेकानंद भारतीयों की उन्नति की पहली शर्त स्वाधीनता मानते थे। यह स्वाधीनता विचारों की अभिव्यक्ति के साथ खान-पान, पोशाक, पहनावा, विवाह आदि हर बात में मिलनी चाहिए। लेकिन यह स्वाधीनता दूसरों को हानि पहुंचाने वाली नहीं होनी चाहिए। वह कहा करते थे, चट्टान के समान दृढ़ रहो, सत्य की हमेशा जय होती है। देश को नवविद्युत शक्ति की आवश्कता है, जो जातीय धमनी में नवीन बल उत्पन्न कर सके।... निःस्वार्थ भाव से काम करने में संतुष्ट रहो, अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से शुद्ध, दृढ़ और निष्कपट रखते हुए किसी को धोखा न दो। क्षुद्र मनुष्यों और मूर्खों की बकवास पर ध्यान न दो, क्योंकि सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है और सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता। परतंत्र भारत में देशवासियों की गरीबी उन्हें विचलित करती थी। विवेकानंद खुद को न सिर्फ निर्धन मानते थे, बल्कि निर्धनों से प्रेम भी करते थे। वह कहते थे कि देश के जो करोड़ों नर-नारी गरीबी में फंसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? वे अंधकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, न उन्हें शिक्षा प्राप्त होती है। उन्हें इस बात की चिंता होती थी कि कौन उन्हें प्रकाश देगा और कौन उन्हें द्वार-द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा। स्वामी जी महात्मा उन्हें मानते थे, जिसका हृदय गरीबों के लिए सदैव द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। उनके मुताबिक, जब तक देश में करोड़ों लोग भूखे और अशिक्षित हैं, तब तक वह हरेक आदमी, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, विश्वासघातक है। गरीबों को कुचलकर धनवान बनकर ठाठ-बाट से चलने वाले लोग यदि करोड़ों देशवासियों के लिए कुछ न करें, तो घृणा के पात्र हैं। स्वामी विवेकानंद के विचार उनकी मान्यताओं और जीवन दर्शन का तो स्पष्ट प्रमाण हैं ही, यह संदेश भी देते हैं कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर ही विश्व का कल्याण संभव है। इसलिए देश की उन्नति के लिए उनके बताए मार्गों पर चलना जरूरी है। . . करे कोई भरे कोई . एक था पंडित जाना-माना। प्रकांड विद्वान। एक प्रसिद्ध मंदिर का था प्रधान पुजारी। मंदिर के वार्षिकोत्सव की तैयारियां चल रही थीं। कई-कई व्यक्ति लगे थे इन तैयारियों में। पंडित जी उत्साह-उमंग से हर एक तैयारी का जायजा ले रहे थे। एक व्यक्ति एक बड़ी सी पताका को मंदिर के गुंबद पर फहराने की तैयारी कर रहा था। पताका लेकर वह गुंबद पर चढ़ गया। उसी समय पंडित जी मंदिर की गैलरी में खड़े होकर उसे देख रहे थे। वह व्यक्ति अचानक उस गुंबद से नीचे खड़े पंडित जी पर गिर पड़ा। उस व्यक्ति का तो कुछ नहीं बिगड़ा। पंडित जी की गरदन टूट गई। पंडित जी को शीघ्र हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। तब पंडित जी से किसी ने पूछा, ‘यह कैसे हो गया? यह क्यों हो गया?’ पंडित जी का जवाब था, ‘यह कोई जरूरी नहीं है कि दूसरों की गलतियों का आप शिकार नहीं हो सकते। अगर दूसरा गिरता है, तो गरदन मेरी भी टूट सकती है।’ अब विचार कीजिए। स्वयं का आत्मविश्लेषण कीजिए। खुद की परखकीजिए। -स्वयं की गलतियों का परिणाम कौन-कौन प्राप्त करता है? -कोई व्यक्ति अपनी भूल का परिणाम स्वयं कितना भुगतता है? -दूसरों के द्वारा की गई गलतियों का परिणाम परिक्षेत्र कितना होता है। -वह घटना याद करें, जब स्वयं की गलती का परिणाम स्वयं ने न भुगता हो? -वह घटना, जब दूसरों के द्वारा की गई गलती केपरिणाम आपको भुगतने पड़े। -मेरी ऐसी कौन सी गलतियां हैं, जो मैं अकसर करता हूं? -मेरी गलतियां मुझे कितना सिखाती हैं? यह जरूरी नहीं है कि कोई अन्य व्यक्ति कोई कार्य करे और उसका आप पर शर्तिया असर न पड़े। यह जरूरी सत्य है कि अन्य व्यक्ति कोई गलती करें, तो शत-प्रतिशत स्वयं पर प्रभाव जरूर पड़ता है। यह प्रभाव चाहे तत्काल न पड़े, मगर प्रभाव पड़ता जरूर है। हर गलती कीमत मांगती है। हर किया गया कार्य हमारे व्यक्तित्व का विस्तार होता है। जो कुछ सामने दिखाई पड़ता है, वह व्यक्तित्व का संकुचित दायरा होता है। जो कुछ क्रिया होती है, उसकी प्रतिक्रिया अवश्य होती है। हमें दूसरों के द्वारा किए गए क्रियाकलापों का असर स्वयं पर हो, इसकेलिए भी तैयार रहना चाहिए। दूसरों की गलतियों से भी हमारी गरदन टूट सकती है |
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