Wednesday, September 21, 2011


मृत्यु: दो प्रतिछवि-१
"मुक्ति का द्वार"
अब मैं समझ गई हे!
मौत, तुम कहीं भी,
कभी भी आ सकती हो,
तुम्हारा आना निश्चित है, अटल है,
जीवन में तुम ऐसे समाई हो,
जैसे आग में तपन, काँटे में चुभन !
सोच-सोच हर पल तुम्हारे बारे में,
मैं निकट हो गई इतनी,
सखी होती घनिष्ठ जितनी,
तुम बनकर जीवन दृष्टि,
लगी करने विचार- सृष्टि
भावों की अविरल वृष्टि !
मैं जीवन में 'तुमको',
तुम में लगी देखने 'जीवन'
इस परिचय से हुआ
अभिनव 'प्रेम मन्थन'
प्रेम ढला "श्रद्धा" में
"श्रद्धा" से देखा भरकर रूप तुम्हारा -
"सिद्धा" ! तुम्हारे लिए मेरा ये "प्यार"
बना जीवन "मुक्ति का द्वार" ! 
- दीप्ति गुप्ता


मृत्यु: दो प्रतिछवि-२
सहेली
'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से,
तुम मेरी और मैं तुम्हारी
सहेली कई बरस से,
तुम मुझे 'जीवन' की ओर
धकेलती रही हो कब से,
"अभी तुम्हारा समय नहीं आया"
मेरे कान में कहती रही हो हँस के,
जब - जब मैं पूछती तुमसे,
असमय टपक पड़ने वाली
तुम इतनी समय की पाबंद कब से,
तब खोलती भेद कहती मुझसे,
ना, ना, ना, ना असमय नहीं,
आती हूँ समय पे शुरू से,
'जीवन' के खाते में अंकित
चलती हूँ, तिथि - दिवस पे
'नियत घड़ी' पे पहुँच निकट मैं
गोद में भर लेती हूँ झट से!
'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से !
- दीप्ति गुप्ता


ऊँचाई
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
          जमती है सिर्फ बर्फ,
          जो, कफन की तरह सफेद और,
          मौत की तरह ठंडी होती है।
          खेलती, खिल-खिलाती नदी,
          जिसका रूप धारण कर,
          अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
          किन्तु कोई गौरैया,
          वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
          ना कोई थका-मांदा बटोही,
          उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफि नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
          जो जितना ऊँचा,
          उतना एकाकी होता है,
          हर भार को स्वयं ढोता है,
          चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
          मन ही मन रोता है।

जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंट सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
          भीड़ में खो जाना,
          यादों में डूब जाना,
          स्वयं को भूल जाना,
          अस्तित्व को अर्थ,
          जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
          किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
          कि पाँव तले दूब ही न जमे,
          कोई कांटा न चुभे,
          कोई कलि न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

          मेरे प्रभु!
          मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
          गैरों को गले न लगा सकूँ,
          इतनी रुखाई कभी मत देना।
- अटल बिहारी वाजपेयी


श्रीहत फूल पड़े हैं
अंगारों के घने ढेर पर
यद्यपि सभी खड़े हैं
किन्तु दम्भ भ्रम स्वार्थ द्वेषवश
फिर भी हठी खड़े हैं

            क्षेत्र विभाजित हैं प्रभाव के
            बंटी धारणा-धारा
            वादों के भीषण विवाद में
            बंटा विश्व है सारा
            शक्ति संतुलन रूप बदलते
            घिरता है अंधियारा
            किंकर्त्तव्यविमूढ़ देखता
            विवश मनुज बेचारा

झाड़ कंटीलों की बगिया में
श्रीहत फूल पड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

            वन के नियम चलें नगरी में
            भ्रष्ट हो गये शासन
            लघु-विशाल से आतंकित है
            लुप्त हुआ अनुशासन
            बली राष्ट्र मनवा लेता है
            सब बातें निर्बल से
            यदि विरोध कोई भी करता
            चढ़ जाता दल बल से

न्याय व्यवस्थ ब्याज हेतु
बलशाली राष्ट्र लड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....

            दीप टिमटिमाता आशा का
            सन्धि वार्ता सुनकर
            मतभेदों को सुलझाया है
            प्रेमभाव से मिलकर
            नियति मनुज की शान्ति प्रीति है
            युद्ध विकृति दानव की
            सुख से रहना, मिलकर बढ़ना
            मूल प्रकृति मानव की

विश्वशान्ति संदेश हेतु फिर
खेत कपोत उड़े हैं
अंगारों के बने ढेर पर .....
- वीरेन्द्र शर्मा


नियति

रात की दस्तक दरवाज़े पर है
आज का दिन भी बीत गया है
कितना था उजाला फिर भी फिर से
अन्धियारा ही जीत गया है
एकान्त की चादर ओढ़ कर फिर से
मैं खुद में खोया जाता हूँ
आँखों के सामने यादों के रथ पर
मेरा ही अतीत गया है
सन्नाटों के गुन्जन में दबकर
अपनी ही आवाज़ नहीं आती मुझको
आँखों की सरहद पर लड़ता
आँसू भी अब जीत गया है
टूटे दर्पण के सामने बैठकर
मैं स्वयं को खोज रहा हूँ
यूँ ही बैठे बैठे जाने
कितना अरसा बीत गया है ... ॥

धीरे धीरे शाम चली आई

धीरे धीरे शाम चली आई
भीनी भीनी खुशबू छाई

इन्द्रधनुषी रँग मेरे मन का
मैं उसकी परछाई, छाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

बूँद पडे बारिश की, सौंधी
महक मिट्टी की भाई, भाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

भीगी मेरे तन की चादर
प्यास न पर बुझ पाई, पाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

कल जो बीज थे मैने बोए
हरियाली अब छाई, छाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

आँगन में कुछ फूल खिले हैं
रँगत मन को भाई, भाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

सुर से सुर मिल राग बना यह
मालकौंस रस बरसाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

सातरँगों की सरगम, कारी
कोयल ने है गाई, गाई
धीरे धीरे शाम चली आई॥

महकाए मन मेरा देवी
भोर न ऐसी आई, आई
धीरे धीरे शाम चली आई॥
- देवी नागरानी
* * *


समय की लिपि
किसने कहा इतिहास मेरा है या तुम्हारा
यह तो एक समूह है जो इधर से गुज़र गया
एक ख्याल है जो करवट बदल कर सो गया
एक तारीख है जो समय की लिपि से मिटी जाती है

आज जिन तालिबान ने बुद्ध के अवशेष्ण को नष्ट किया
कल वो भी समय की लिपि पर बिखर जाएँगे
माना जीने के लिए हम सब का सार्थक होना ज़रूरी है
पर किसी की सार्थकता को निरर्थक बनाना ज़रूरी तो नहीं

समय की लिपि पर कुरेद कर अपना पता लिख भी दिया तुमने
तो भी इतिहास न मेरा है न तुम्हारा
यह तो एक समूह है जो इधर से गुज़र गया
एक गुमनाम पता है जो आगे मोड़ पर जा कर बिखर गया।
* * *

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा

बाकी बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकीं

क्षण भर के लिए
लंबी हुई
फिर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूँदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी।
* * *

                  
आराम करो


                                                                          एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास
* * *

Sunday, September 18, 2011

अमर रहेगी यह कथा

    जब स्टैन ली का काल्पनिक चरित्र स्पाइडरमैन दीवारों पर फांदना सीख रहा होगा, तब अपने देश में कपिश नाम का एक कार्टून किरदार एक डाल से दूसरे डाल पर कूदते-फांदते, लाखों-करोड़ों बच्चों के दिल में उतर चुका था। यह उस जमाने की बात है, जब अपने यहां कार्टून पढ़ने की चीज होती थी और जब जॉर्ज रेमी के नन्हें से कार्टून टिनटिन बनने का सपना देख-देखकर ऊब चुके थे बच्चे। वाल्ट डिज्नी के कार्टून कैरेक्टर डॉनल्ड को चाहने वाले होने लगे थे बूढ़े।


तभी एक चाचा आए थे, जिनके पास बच्चों के लिए बहुत कुछ था। कार्टून के नए किरदार, नई कहानियां और नया अंदाज। भारतीय कॉमिक्स की दुनिया एक झटके में बदल गई। कॉमिक्स न पसंद करने वाले कड़क शिक्षकों और कॉमिक्स को बरबादी का कारण मानने वाले सख्त मिजाज अभिभावकों का नजरिया भी बदल गया। अब बच्चों के बस्तों में, बिस्तरों पर और आपसी बहसों में चाचा के कार्टून किरदार धमा चौकड़ी मचाने लगे थे और अपने कार्टून किरदारों के साथ बच्चों के चाचा यानी अनंत पई भी घर-घर में मशहूर हो गए। इन कार्टूनोें के किरदार बच्चों को सिर्फ हंसा ही नहीं रहे थे, भारतीय इतिहास और पौराणिक कथाओं को भी सुना रहे थे। पहली बार देश की भाषा में देश की मासूमियत को हंसी की नई खुराक मिली थी। अनंत पई पहले भारतीय थे, जिन्होंने भारतीय महाकाव्यों, पौराणिक और एतिहासिक कथाओं पर आधारित अमर चित्र कथा शृंखला की किताबों की शुरुआत की। लेकिन यह आसान काम नहीं था। बच्चों तक पहुंचने से पहले बड़ों की जेब तक पहुंचना जरूरी था। जोखिम न लेने को तैयार प्रकाशकों को मनाना था। क्योंकि जब अमर चित्र कथा को सामने लाने की बात हो रही थी, तब बाजार में अमेरिका के कार्टून किरदार टिनटिन की धूम थी। पई कई प्रकाशकों से निराश होकर लौट चुके थे, तभी इंडिया बुक हाउस के मालिक जी एल मीरचंदानी को पई की बातों से भरोसा हुआ और वह अमर चित्र कथा को छापने के लिए राजी हो गए।


उस वक्त पई टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में इंद्रजाल कॉमिक्स के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने अमर चित्र कथा के प्रकाशन के इरादे के साथ नौकरी छोड़ दी थी। अमर चित्र कथा का प्रकाशन 1967 में शुरू हुआ था। भारत के महापुरुष, वीर महिलाएं, प्रख्यात वैज्ञानिक, स्वतंत्रता सेनानी और पौराणिक पात्र जैसी शृंखलाओं के साथ अमर चित्र कथा की कामयाबी ने भी एक इतिहास रच डाला। 


इतिहास से लेकर महापुरुषों के जीवन चरित्र तक, मायथॉलॉजी से लेकर हास्य विनोद तक, प्राचीन भारतीय महाकाव्यों से लेकर सुरुचिपूर्ण आधुनिक ग्रंथों तक का संसार समेटे पांच सौ के लगभग अमर चित्र कथाएं बेनटेन और मिकी माउस के जमाने में भी बच्चों को गुदगुदाती हैं, बच्चों में पढ़ने की आदत डालती हैं, तो इसके पीछे चाचा पई की वही सोच है। वह जानते थे कि बच्चों को पढ़ाना है, तो पहले उसे हंसाओ और फिर खेल-खेल में पढ़ाओ। फिर स्कूलों की लाइब्रेरी में अमर चित्र कथा की खरीद शुरू हो गई। इसके बाद तो इसकी बिक्री ने भी एक इतिहास रच डाला। आज भी कई भाषाओं में उसका प्रकाशन होता है और प्रति वर्ष उसकी 30 लाख से अधिक प्रतियां बिकती हैं।


1980 में अनंत पई ने हिंदी और अंगरेजी में बच्चों की एक लोकप्रिय पत्रिका ‘टिंकल’ का भी प्रकाशन शुरू किया। इस पत्रिका में अंकल पई के नाम से वह बच्चों के सवालों का जवाब देते थे। यह पत्रिका बच्चों में इस कदर मशहूर थी कि जिसके सवाल उसमें छप जाते थे, वह बच्चा मुहल्ले का हीरो तो हो ही जाता था। इसी दौरान अनंत पई ने शिकारी शंभू, कालिया द क्रो, तंत्री द मंत्री ,‘रामू और श्यामू’ और ‘कपिश’ जैसे लोकप्रिय कॉमिक किरदारों को जन्म दिया, जो वर्षों तक भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। आज जब पई हमारे बीच नहीं हैं, तो सबके सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या हमारे देश के कार्टून किरदार भी अब विदेशी रंग में रंग जाएंगे। क्योंकि, तकनीकी विस्फोट और साधनों के लोकतंत्रीकरण से विदेशी कार्टून किरदारों की लंबी फौज हमारे घरों में आ घुसी है। ऐसे में अपने देश में कार्टून के किरदारों को जन्म देने वाले क्या उस रास्ते पर चलेंगे, जो अंकल पई ने दिखाया था। क्या डोरेमॉन के जमाने में शिकारी शंभू की कोई सुनेगा? कई पीढ़ी जिन कथाओं को पढ़ते हुए और जिन कार्टून किरदारों को देखते हुए जवान हुई है, क्या उन किरदारों को कोई याद करनेवाला नहीं होगा? शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि देश की भाषा में देश की मासूमियत को मुसकान देने के जो फॉरमूले चाचा पई ने दिए है, वे जल्दी नहीं चूकने वाले।
       पूरब-पश्चिम का अंतर                                                                                                          गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर कुशल चित्रकार भी थे। एक बार उन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। फ्रांस के कला-मर्मज्ञ रोथेंस्टाइन तथा फ्रेंच आर्टिस्ट एन्ड्रीकारपेल्स गुरुदेव के मित्र थे। उन्होंने आग्रह किया कि वह अपने साथ कुछ चित्र भी लेते आएं। फ्रांस में उनके कला-चित्रों की धूम मच गई। अमेरिका में भी प्रदर्शनी लगाने का आग्रह किया गया। उनके व्याख्यान सुनकर बुद्धिजीवी लट्टू हो गए।
उन्होंने व्याख्यान में कहा, ‘अथाह भौतिक साधनों व अपार समृद्धि के बावजूद पश्चिम के देशों में मुझे आत्मिक संतोष व सच्चे सुख की अनुभूति नहीं हो पाई। वे सच्ची सुख-शांति के लिए पूर्व के आध्यात्मिक संस्कारों की ओर टकटकी लगाए हुए हैं।’ गुरुदेव ने एक समारोह में स्पष्ट कहा, ‘पश्चिम के विज्ञान का बोलबाला अवश्य है, किंतु मानवीय संवेदना लुप्त होती दिखाई दे रही है। विज्ञान की ओर असंतुलित दौड़ एक दिन विनाशकारी सिद्ध होगी।’
वाशिंगटन में एक बुद्धिजीवी ने गुरुदेव से प्रश्न किया, ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘जब मैं काव्य सृजन करता हूं, उस समय मुझे ईश्वर का साक्षात्कार होता है।’ उनसे पूछा गया, ‘क्या आप ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण दे सकते हैं?’ गुरुदेव ने कहा, ‘इस पृथ्वी पर ऐसा बहुत कुछ है, जिसके बारे में हम अनभिज्ञ हैं। किंतु क्या यह दावा कर सकते हैं कि वह सब नहीं है? इसलिए ईश्वर को प्रत्यक्ष देखने के बजाय हम विभिन्न समय में उसकी कृपा की अनुभूति करते हैं।’
बुद्धिजीवी उनका तर्क सुन उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर चला गया।

      भविष्य की तैयारी                                                         au                                                 पिता की अर्थी लोगों की दी हुई भीख के सहारे बनाई गई है, यह विचार उसे बेहद भारी मालूम होने लगा था। मंगनी के पैसों से पिता का संस्कार! घाट पर पहुंचते ही भिखमंगों की भीड़ ने घेर लिया। अधनंगे कृषकाय भिखमंगे, जिनको देखने से ही मन में करुणा पैदा होने लगती थी। वे हाथ फैला-फैला कर करुणा उपजाने की कोशिशें करते हुए उससे भीख मांगने लगे थे। उस मौके पर धीरज के अंदर इतना साहस नहीं बचा था कि वह उनमें से किसी के चेहरे को भी ठीक तरह से आंखों में आंखे डाल कर देख सके। उसे लगा कि वह खुद भी घाट पर बैठे हुए उन्हीं भिखमंगों की कतार में शामिल है और उसे अपने लिए घाट पर बैठने की एक जगह की तलाश है।
दाह-संस्कार के बाद घर की ओर लौटते हुए उसने लकड़ियों की कीमत जमा कर दी। उसे अदा कर देने के बाद धीरज अपने पंडित की ओर मुड़ा।
‘पंडितजी, आपकी दक्षिणा!’
‘तुमसे कोई दक्षिणा नहीं धीरज!’ ब्राह्मण ने अपनी दक्षिणा लेने से इंकार कर दिया। घाट पर ब्राह्मण का अपनी परंपरागत दक्षिणा लेने से इंकार कर देना उसे सबसे ज्यादा खल गया। पंडितजी उसे स्पष्ट तौर पर यह निर्देश दे रहे हैं कि ये पैसे घर ले जाओ और इनसे बेसहारा हो गए अपने परिवार की कुछ दिनों की रोटी का जुगाड़ कर लेना। 
घाट का पैसा घर के अंदर! धीरज घाट से निषिद्ध पैसों की भीख अपनी जेब के अंदर ले कर घर की ओर लौटने लगा है। कई दिनों तक वह एक भयंकर मानसिक सदमे में रहा। वे दिन और उसके बाद के कई दिन, धीरज के परिवार ने कैसी विकट परिस्थितियों में, अपने लोगों से मिलने वाली सहायता के सहारे गुजारे थे, उन यादों को वह कभी भुला नहीं पाया। बाद की जिंदगी की शुरुआत उसने ट्यूशन से की थी। उसकी बेकारी पर तरस खाते हुए लोग अपने और अपनों के बच्चों को उसके पास भेजने-भिजवाने लगे। पढ़ाने में वह अपनी पूरी शक्ति और मेधा खपाने लगा। जिन बच्चों के माता-पिता उनके कभी सफल हो पाने के बारे में पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके थे, वे सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए मंजिलों पर पहुंचने लगे। उसके पढ़ाए बच्चे कक्षाओं में अव्वल आने लगे। शहर में उसका नाम फैलने लगा। खुद भी प्राइवेट परीक्षाओं की सीढ़ियां पार करते हुए उसने एमए कर लिया। उसे कॉलेज में अध्यापन की नौकरी भी मिल गई। उसने देवकी की पढ़ाई भी जारी रखवाई। उसका विवाह भी कर लिया। नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में उसकी गिनती होने लगी। मां के जीवन-काल में ही धीरज ने अपने लिए एक घर भी बना लिया। और मां की इच्छाओं का अनुपालन करते हुए अपने लिए एक दुलहन भी ले आया।
इतवार का दिन। धीरज का इकलौता बेटा शशांक। उसे आज दफ्तर नहीं जाना है। उसके पिता ने आज आखिरी किनारे पर बनी कोठरी को खाली करने को कह दिया है। उसके अंदर किसी का भी प्रवेश वर्जित कर दिया है। उसकी मां भी वहां नहीं जा सकती, बहू भी नहीं। वह ऐसी जगह पर बनाई गई थी कि कोई आने-जाने वाला कोशिश करने पर भी वहां ताक-झांक न कर सके। उस कोठरी के ताले की चाभी हमेशा धीरज के पास रहती है। ‘मेरे जीते-जी इस कोठरी के अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं है।’ एक दिन उसने शशांक से अकेले में एक बात कही थी, ‘बेटे! मेरे जाने के बाद तुम मेरी चाभी अपने कब्जे में ले लेना। घाट पर ले जाने के लिए कोई और काम बाद में किया जाना चाहिए।’
शशांक की बेटी का विवाह अपने ही घर से करने का निर्णय लिया गया था। बारात के स्वागत के लिए घर के बाहर ही शामियाना लगा दिया जाएगा।
‘मिठाइयां बाजार से खरीद लें, पापा?’
‘मेरे खयाल में बाजार खरीदने के बजाय हलवाई के कारीगरों को घर पर ही बुलवा लेना ठीक रहेगा शशांक। वे घरातियों के लिए रसोई भी बना लेंगे।
कारीगर से मिठाइयां और नमकीन बनवा लिए गए। समस्या उनको किसी अलग कमरे में सुरक्षित रखने की हुई। परिवार वालों ने समस्या धीरज के सामने पेश कर दी। आशा थी कि वह मंगलकार्य की मिठाइयों के लिए अपनी कोठरी का उपयोग कर लेने देगा। लेकिन धीरज ने साफ मना कर दिया। आंगन में ही एक और तंबू लगवा कर काम चलाना पड़ा। बारात के लिए शानदार शामियाना लगवाया गया था। उसे देख कर ऐसा लग रहा था कि वहां पर एक दोमंजिला, खूबसूरत, पक्का भवन बना हो। वैसा भव्य भवन और इंतजामात को देख कर सभी लोग आश्चर्य में डूबने लगे थे। बारात के आते ही अचानक बहुत जोर का पानी बरसने लगा। साथ में जबर्दस्त आंधी। लोग अकबका गए। बारात के पहुंचते-पहुंचते शामियाने की छत के ऊपर पानी भर गया। पानी के दबाव और आंधी के कारण शामियाने के चमकते हुए खंभे एक-एक कर नीचे गिरने लगे। भगदड़ मच गई। मैदान, जिसमें शामियाना खड़ा था, घुटनों तक के पानी से लबालब हो गया। बारातियों को सुरक्षित स्थानों पर बैठाने की तात्कालिक समस्या पैदा हो गई। धीरज का पूरा परिवार उन सभी लोगों को अपने घर के कमरों के अंदर लेते आने में जुट गया। कमरों के अंदर रिश्तेदारों के कई दिन पहले से आ जाने से वहां पहले से ही कहीं तिल रखने की जगह बाकी नहीं थी। संकट के उस मौके पर शशांक ने अपने पिता से पूछा, ‘पापा, कोठरी का ताला खोला जा सकता है?’
‘वह ताला नहीं खोला जा सकता शशांक।’ 
कुछ दिन बाद शहरवासियों को धीरज की अचानक हुई मृत्यु का समाचार सुनाई दिया। पिता के निर्देशानुसार शशांक ने कोठरी का दरवाजा खोला। वहां रखे तीन संदूकों में एक के ऊपर एक बड़ा लिफाफा रखा था। उस पर मोटे, लाल अक्षरों में एक बड़े कोष्टक के अंदर लिखा था,‘ पहले इसे खोलो।’ लिफाफे के अंदर एक कागज पर लिखा था, ‘मेरे पिता एक ईमानदार, कर्तव्यपरायण, नेकदिल इंसान थे। उनके सद्गुणों का भुगतान हमारे परिवार को करना पड़ता था। उनकी अचानक मौत के वक्त परिवार के पास कफन तक के पैसे नहीं थे। दाह-संस्कार का पूरा खर्चा लोगों ने चंदा करके मेरी जेब में डाल दिया था। मैं उस प्रसंग को आजीवन भुला नहीं पाया। मेरे मन में तभी से यह विचार प्रबल होने लगा था कि हर भारतवासी को अपने जीवन काल में अपनी मौत का सामान जमा कर लेना चाहिए। उसका एक मुख्य कारण रोज-ब-रोज बढ़ती मंहगाई भी है। हमारे अपने हाथ में कुछ भी नहीं रह गया है। सब कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में है। मैंने इस कोठरी में इतना सामान जमा कर लिया है कि मेरी मौत के बाद मुझे घाट पर ले जाने, तेरहवीं और श्राद्ध जैसे संस्कारों के लिए पैसों या साधनों की कमी आड़े न आए। मेरा यह भी सुझाव है आम आदमी को मौत की ओर धकेल रही हमारी सरकारों को इस दिशा में विशेष पहल करनी चाहिए। मेरा अनुभव है कि आम भारतवासी मरने से नहीं डरता, वह अपनी मौत के बाद उत्तराधिकारियों के सामने पैदा हो जाने वाली विकराल समस्याओं से डरने लगा है। हमारी सरकारें, चाहे वे किसी भी पार्टी की हों, आम आदमी का जीना दूभर करने लगी हैं। हमारी कीमत पर राजनेताओं का दाह-संस्कार करने वाली सरकारों को एक ‘मृत्यु-कोष’ की स्थापना करनी चाहिए, जिसका संचालन करने के लिए एक अलग ‘संस्कार मंत्रालय’ का गठन किया जाना चाहिए। संविधान में संशोधन करके प्रत्येक भारतवासी को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि उसकी मृत्यु हो जाने पर राज्य की ओर से घाटों पर नियुक्त अधिकारी निःशुल्क और राजकीय खर्चे पर उसका संस्कार करवा दे। और वह अधिकारी बगैर भेदभाव के मुसलमानों व ईसाइयों को कब्र में जगह की व्यवस्था करे और दीगर वांछित खर्चों की भी व्यवस्था करे ताकि किसी को हलवाई की दुकान के बाहर खड़े होकर दादा मियां का फातिहा न पढ़ना पड़े।’

Saturday, September 17, 2011

पटेल की विरासत

            यदि प्रश्न उठे कि सरदार वल्लभाई झवेरदास पटेल के बहुगुणी जीवन की एक विशिष्टता गिनाओ, तो आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में उत्तर यही होगा, ‘पटेल द्वारा अपने घर में वंशवाद का आमूल खात्मा।’ आखिर बचा कौन है इस कैकेयी-धृतराष्ट्री मनोवृत्ति से? महात्मा गांधी के बाद सरदार पटेल ही थे, जिनके आत्मजों का नाम-पता शायद ही कोई आमजन जानता हो।
पटेल का इकलौता पुत्र था, डाह्यालाल वल्लभभाई पटेल, जिससे उनके पिता ने सारे नाते तोड़ लिए थे। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही मुंबई के एक सार्वजनिक मंच से सरदार पटेल ने घोषणा कर दी थी कि उनके पद पर उनके पुत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए सत्ता और कुटुंब के मध्य रिश्ता नहीं होना चाहिए। पिता के निधन के बाद डाह्यालाल स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए, जिसका गठन नेहरूवादी समाजवाद के खिलाफ किया गया था। सरदार पटेल की एक ही पुत्री थी मणिबेन पटेल, जो अविवाहित रहकर पिता की सेवा में रही, कोई लाभ का पद कभी नहीं लिया। सरदार पटेल का एक ही पोता था, विपिन पटेल, जो गुमनामी में जीता रहा। उसका जब निधन (12 मार्च 2004) दिल्ली में हुआ था, तो अंत्येष्टि में चंद लोग ही थे। लोगों को अखबारों से दूसरे दिन पता चला। हालांकि पटेल से प्रेरणा पाने का दावा करने वाले भाजपाई तब राजग सरकार में सत्तारूढ़ थे। वे नहीं आए। कांग्रेसी तो एक भी नहीं पहुंचा। 
पटेल जब राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन के लिए 1931 में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, तो उनके पहले मोतीलाल-जवाहरलाल की जोड़ी उसी पद पर आरूढ़ हो चुकी थी। कांग्रेस में वंशवाद की शुरूआत भी तभी (दिसंबर 1929) से लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन से हुई थी। आज तक वही परिवारवाद चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी के रूप में पल्लवित हो रही है। मगर पटेल के लिए राष्ट्र कुटुंब से पहले था। 
पटेल को नेहरूवादियों ने समाजवाद-विरोधी तथा हिंदूवादी चित्रित किया था। समतावाद से पटेल को कोई आकर्षण नहीं था, क्योंकि उनका जन्म गुजरात में हुआ, जो आज भी समाजवाद के लिए ऊसर भूमि है। खुद गांधीजी समाजवादियों के निकट निजी रूप से थे, पर वैचारिक पैमाने पर कभी नहीं। सरदार पटेल तो इन सोशलिस्टों को विध्वंसक मानते थे। सोशलिस्टों, खासकर जयप्रकाश नारायण ने, पटेल पर आरोप लगाया था कि गांधीजी की हत्या के दोषी वह भी हैं, क्योंकि गृह मंत्री होने के नाते उन्होंने पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं कराई थी। हालांकि सितंबर, 1974 को सूरत की एक जनसभा में जेपी ने चौबीस वर्षों बाद सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा कि तब सोशलिस्ट जन नेहरूवादी प्रगतिशीलता के वैचारिक कुहासे से आच्छादित थे। पटेल को वे प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी मानते थे। नेहरू के बजाय पटेल, जेपी के आकलन में, योग्यतर प्रधानमंत्री होते। इन सोशलिस्टों द्वारा हिंदूवादी होने के मिथ्यारोप के बावजूद, पटेल ने हिंदू महासभा को दंडित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहली बार दो फरवरी, 1948 को प्रतिबंधित किया गया। उन्होंने सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को चेतावनी दी कि उनका संगठन हिंदुओं का संरक्षक है, मगर उसे मुसलमानों पर आक्रमण करने का हक नहीं है। पटेल ने गोलवलकर की गिरफ्तारी का आदेश भी कर दिया था। यों छत्तीस के आंकड़े के बावजूद सोशलिस्टों की एक मांग को सरदार पटेल पसंद करते थे। तब सड़क पर जेपी, लोहिया, अशोक मेहता जुलूस निकालते थे कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से भारत नाता तोड़े, गुलामी की यह निशानी है। नेहरू नहीं माने। मान जाते, तो दिल्ली में इसी महीने संपन्न हुए खेलों का खेल न होता। पटेल अंगरेजों से कोई नाता-वास्ता नहीं चाहते थे। वह भुगत चुके थे कि किस प्रकार अंतिम गवर्नर जनरल माउंटबैटन ने हैदराबाद, कश्मीर, जूनागढ़ और भोपाल के रजवाड़ों की मदद कर खंडित भारत का मानचित्र बनाया था, जिसे पटेल ने मिटाया था। 
जब जवाहरलाल नेहरू की सेक्यूलर सोच से तुलना के समय लोग सरदार पटेल की मुसलिम-विरोधी छवि निरुपित करते हैं, तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं। स्वभावतः पटेल में किसान मार्का अक्खड़पन था। लखनऊ की एक सभा में पटेल ने कहा था, ‘भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोड़ों पर सवारी नहीं कर सकते।’ इसे भारत में रह गए मुसलमानों ने हिंदुओं द्वारा ऐलान-ए- जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्ठभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आंदोलन के हरावल दस्ते में रहे। मुसलमानों की बाबत पटेल के कड़वे, मगर स्पष्टवादी उद्गार का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अनन्य गांधीवादी होने के बावजूद वह सियासत तथा मजहब के घालमेल के कट्टर विरोधी थे। नेहरू के लिए तुष्टिकरण सियासी अपरिहार्यता बन गई थी। पटेल ने गरिमा बनाई रखी, भले ही उनके निधन के बाद नेहरू के साथियों ने नहीं। वरना पटेल की भी समाधि राजघाट के आसपास ही होती जहां नेहरू वंश के चार-चार लोगों के नाम चबूतरे बने हैं।

अहिंसक संघर्ष की आवाज

     सरकार के खिलाफ आवाज उठाना कितना दुष्कर होता है, यह इस वर्ष के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित लिउ जियाओबो से बेहतर और कौन जान सकता है! राजनीतिक कैदी का जीवन बिता रहे जियाओबो चीन की एक अरब 30 करोड़ जनता के मौलिक अधिकारों के लिए कम्यूनिस्ट हुकूमत से अहिंसक रूप से लड़ रहे हैं। उनकी यह जंग 1989 में तब शुरू हुई, जब उन्होंने थ्यानमन चौक पर लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का नेतृत्व किया था। जियाओबो का जन्म 28 दिसंबर, 1955 को चांगचुन शहर में हुआ। अधिकारों के लिए आवाज उठाने का बीज उनमें महज 14-15 वर्ष की उम्र में ही पड़ गया, जब उनके पिता उन्हें इनर मंगोलिया के बैनर तले चल रहे आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए अपने साथ ले गए थे। जियाओबो की रुचि साहित्य में भी है और उन्होंने कई निबंध भी लिखे हैं। उनका पहला लेख क्रिटिक ऑन च्वाइसेस काफी विवादित रहा, जो चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक ली जेहोयु के विचारों का खंडन करता है। कोलंबिया, हवाई और ओस्लो यूनिवर्सिटी में विजिटिंग स्कॉलर रहे जियाओबो पर बंदिशें इस कदर हैं कि जब उन्होंने चीन में मानवीय अधिकारों की स्थिति पर लिखना शुरू किया, तो न सिर्फ उनके लेखन पर नजर रखी गई, बल्कि उनका कंप्यूटर तक जब्त कर लिया गया। फाउंडेशन डे फ्रांस अवार्ड सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित जियाओबो देश में लोकतंत्र बहाली तक आंदोलन चलाने को प्रतिबद्ध हैं।

मार्गदर्शक कर्मयोगी

    वेदांत के प्रकांड विद्वान, आडंबरों के प्रबल विरोधी और पाश्चात्य विश्व में हिंदू धर्म की सारगर्भित व्याख्या करने वाले प्रख्यात मनीषी स्वामी विवेकानंद ने स्वयं को न तो कभी तत्व जिज्ञासु की श्रेणी में रखा, न सिद्ध पुरुष माना और न कभी दार्शनिक ही कहा। उन्होंने जीवन में सदैव चरित्र निर्माण को प्रमुखता देने और सत्य बोलने पर बल दिया। उनका मानना था कि परोपकार और प्रेम ही जीवन है, जबकि संकोच व द्वेष मृत्यु।
उन्हें अपने देशवासियों की स्थिति देखकर पीड़ा होती थी। अध्यात्म के पथ पर चलने वाला यह योगी उस मार्ग तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह इस देश की समग्र उन्नति चाहता था। कहने को वह शक्ति मार्ग के उपासक थे, लेकिन आधुनिक चिंतन उन्हें एक ऐसामनीषी बनाता था, जिसे भारत के सुखद भविष्य के रास्ते का पता था। 
वह हमारे पिछड़ेपन का कारण हमारी सोच को मानते थे। उनके मुताबिक, हमने उसी दिन से मरना शुरू कर दिया, जब से हम अन्यान्य जातियों से घृणा करने लगे। यह मृत्यु विस्तार के बिना किसी उपाय से रुक नहीं सकती, जो जीवन का गति नियामक है। दास जाति के दोष, पराधीनता के जन्म, पाश्चात्य विश्व के लोगों की सफलता और किसी राष्ट्र की दुर्बलता के कारणों का समय-समय पर अपने प्रवचनों व भक्तों को लिखे पत्रों में उन्होंने विस्तार से खुलासा किया है। उनका सपना था कि पराधीन भारत के बीस करोड़ लोगों में नवशक्ति का संचार हो, करोड़ों पददलित गरीबी, छल-प्रपंचों, ताकतवरों के अत्याचारों और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त हों तथा उनके जीवन में खुशहाली आए। इसके लिए उन्होंने ईश्वर पर भरोसा रखते हुए निःस्वार्थ भाव से चारित्रिक दृढ़ता के साथ कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी।
उनका स्पष्ट मत था कि प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईर्ष्या होता है और सद्भाव का अभाव पराधीनता उत्पन्न करता और उसे स्थायी बनाता है। जिनकी सदाचार संबंधी उच्चाभिलाषा मर चुकी है, जो भविष्य की उन्नति के लिए बिलकुल भी चेष्टा नहीं करते और भलाई करने वाले को दबाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं, उन मृत जड़ पिंडों के भीतर प्राण संचार कर पाना असंभव है। अमेरिकी और यूरोपीय नागरिक विदेश में भी अपने देशवासियों की सहायता करते हैं, जबकि हिंदू अपने देशवासियाें को अपमानित होते देख हर्षित होते हैं।
विवेकानंद भारतीयों की उन्नति की पहली शर्त स्वाधीनता मानते थे। यह स्वाधीनता विचारों की अभिव्यक्ति के साथ खान-पान, पोशाक, पहनावा, विवाह आदि हर बात में मिलनी चाहिए। लेकिन यह स्वाधीनता दूसरों को हानि पहुंचाने वाली नहीं होनी चाहिए। वह कहा करते थे, चट्टान के समान दृढ़ रहो, सत्य की हमेशा जय होती है। देश को नवविद्युत शक्ति की आवश्कता है, जो जातीय धमनी में नवीन बल उत्पन्न कर सके।... निःस्वार्थ भाव से काम करने में संतुष्ट रहो, अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से शुद्ध, दृढ़ और निष्कपट रखते हुए किसी को धोखा न दो। क्षुद्र मनुष्यों और मूर्खों की बकवास पर ध्यान न दो, क्योंकि सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है और सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता।
परतंत्र भारत में देशवासियों की गरीबी उन्हें विचलित करती थी। विवेकानंद खुद को न सिर्फ निर्धन मानते थे, बल्कि निर्धनों से प्रेम भी करते थे। वह कहते थे कि देश के जो करोड़ों नर-नारी गरीबी में फंसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? वे अंधकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, न उन्हें शिक्षा प्राप्त होती है। उन्हें इस बात की चिंता होती थी कि कौन उन्हें प्रकाश देगा और कौन उन्हें द्वार-द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा। स्वामी जी महात्मा उन्हें मानते थे, जिसका हृदय गरीबों के लिए सदैव द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। उनके मुताबिक, जब तक देश में करोड़ों लोग भूखे और अशिक्षित हैं, तब तक वह हरेक आदमी, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, विश्वासघातक है। गरीबों को कुचलकर धनवान बनकर ठाठ-बाट से चलने वाले लोग यदि करोड़ों देशवासियों के लिए कुछ न करें, तो घृणा के पात्र हैं। 
स्वामी विवेकानंद के विचार उनकी मान्यताओं और जीवन दर्शन का तो स्पष्ट प्रमाण हैं ही, यह संदेश भी देते हैं कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर ही विश्व का कल्याण संभव है। इसलिए देश की उन्नति के लिए उनके बताए मार्गों पर चलना जरूरी है।

करे कोई, पर भरता है हर कोई

          एक था पंडित जाना-माना। प्रकांड विद्वान। एक प्रसिद्ध मंदिर का था प्रधान पुजारी। मंदिर के वार्षिकोत्सव की तैयारियां चल रही थीं। कई-कई व्यक्ति लगे थे इन तैयारियों में। पंडित जी उत्साह-उमंग से हर एक तैयारी का जायजा ले रहे थे। एक व्यक्ति एक बड़ी सी पताका को मंदिर के गुंबद पर फहराने की तैयारी कर रहा था। पताका लेकर वह गुंबद पर चढ़ गया। उसी समय पंडित जी मंदिर की गैलरी में खड़े होकर उसे देख रहे थे। वह व्यक्ति अचानक उस गुंबद से नीचे खड़े पंडित जी पर गिर पड़ा। उस व्यक्ति का तो कुछ नहीं बिगड़ा। पंडित जी की गरदन टूट गई। पंडित जी को शीघ्र हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। तब पंडित जी से किसी ने पूछा, ‘यह कैसे हो गया? यह क्यों हो गया?’ पंडित जी का जवाब था, ‘यह कोई जरूरी नहीं है कि दूसरों की गलतियों का आप शिकार नहीं हो सकते। अगर दूसरा गिरता है, तो गरदन मेरी भी टूट सकती है।’
अब विचार कीजिए। स्वयं का आत्मविश्लेषण कीजिए। खुद की परखकीजिए।


-स्वयं की गलतियों का परिणाम कौन-कौन प्राप्त करता है?
-कोई व्यक्ति अपनी भूल का परिणाम स्वयं कितना भुगतता है?
-दूसरों के द्वारा की गई गलतियों का परिणाम परिक्षेत्र कितना होता है।
-वह घटना याद करें, जब स्वयं की गलती का परिणाम स्वयं ने न भुगता हो?
-वह घटना, जब दूसरों के द्वारा की गई गलती केपरिणाम आपको भुगतने पड़े।
-मेरी ऐसी कौन सी गलतियां हैं, जो मैं अकसर करता हूं?
-मेरी गलतियां मुझे कितना सिखाती हैं?


यह जरूरी नहीं है कि कोई अन्य व्यक्ति कोई कार्य करे और उसका आप पर शर्तिया असर न पड़े। यह जरूरी सत्य है कि अन्य व्यक्ति कोई गलती करें, तो शत-प्रतिशत स्वयं पर प्रभाव जरूर पड़ता है। यह प्रभाव चाहे तत्काल न पड़े, मगर प्रभाव पड़ता जरूर है। हर गलती कीमत मांगती है। हर किया गया कार्य हमारे व्यक्तित्व का विस्तार होता है। जो कुछ सामने दिखाई पड़ता है, वह व्यक्तित्व का संकुचित दायरा होता है। जो कुछ क्रिया होती है, उसकी प्रतिक्रिया अवश्य होती है। हमें दूसरों के द्वारा किए गए क्रियाकलापों का असर स्वयं पर हो, इसकेलिए भी तैयार रहना चाहिए। दूसरों की गलतियों से भी हमारी गरदन टूट सकती है।

खुद को जानना भी भक्ति है

मेरा मानना है कि अध्यात्म या ईश्वर के प्रति भक्ति के पीछे हम खुद को पहचानने की कोशिश करते हैं, जो बाहर से देखने में ईश्वर की खोज लगती है। इस तरह हम अपने जीवन की कई कठिन समस्याओं को सरल बना लेते हैं। दरअसल हम क्या करते हैं, कैसे रहते हैं, इसके बीच में अगर हम अपने सच्चे अंदरूनी रूप को बचा पाते हैं, तो हम भगवान को अनुभव करने के बहुत करीब होते हैं। क्योंकि ऐसा तभी हो सकता है, जब बाहर की चीजें आपकी आत्मा की सचाई पर असर न डालती हों। और अगर आप एक सच्चे इनसान बने रह पाते हैं, तो भगवान के करीब ही हैं।
         


आपका नजरिया कैसा है, यह भी आपकी भक्ति और भगवान को पाने की यात्रा पर असर डालता है। अगर आप दूसरों में अच्छाई ढूंढ़ने वाले शख्स हैं, तो निश्चित ही आप अच्छे लोगों के आसपास ही  रहे होंगे। यही तो भगवान है। भगवान पॉजिटिव हैं, सुंदर हैं और खुशी देने वाले हैं। इस कारण आपके मन में संतोष की भावना आती है और आप बेवजह की प्रतियोगिता करने में विश्वास करना छोड़ देते हैं। यह जीवन को शांति से भर देता है। क्योंकि यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आप कर्म कर रहे हैं, तो आपको उसका अच्छा फल मिलना ही मिलना है। मैं जब भी कठिनाई में घिरा     हूं, मैंने भगवान को महसूस किया है।

 

रहीम को याद रखो

          हातिम हासम परम तपस्वी और वीतरागी संत थे। वह लोगों को दुर्गुणों का त्याग करके, सदाचार का पालन करने तथा खुदा को हर समय याद रखने का उपदेश दिया करते थे। एक बार वह भ्रमण करते हुए बगदाद पहुंचे। वहां का खलीफा उनकी त्याग-तपस्या और विद्वता की ख्याति सुन चुका था। उसने उन्हें महल में आने का निमंत्रण भेजा। संत हातिम अत्यंत विनम्र स्वभाव के थे। वह महल जा पहुंचे। खलीफा उनके उपदेश से बहुत प्रभावित हुआ। विदाई के समय उसने उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं। संत हातिम ने कहा, ‘धन अल्लाह की इबादत में बाधा डालने वाला होता है। फकीर खुदा को भूलकर उस धन की रक्षा की चिंता में लगा रहता है। इसे अनाथों में बांट देना, मैंने स्वीकार कर लिया है।’ खलीफा संत की विरक्ति भावना को देखकर हतप्रभ रह गया।
संत हातिम कहा करते थे, ‘प्रत्येक काम करते समय याद रखना चाहिए कि उसे ईश्वर देख रहा है। मैं जो कुछ बोल रहा हूं, उसे ईश्वर सुन रहा है। इसलिए हर समय सत्कर्म ही करना चाहिए। सत्य और मृदु बोलना चाहिए, कभी अनर्गल या कटु शब्द मुंह से नहीं निकालना चाहिए। ईश्वर सेवा-परोपकार करने वाले, दुखियों पर दया करने वाले, सत्य व न्याय पर अटल रहने वाले पर ही दया करता है।’
वह कहते हैं, ‘रहम हमेशा रहमदिल पर इनायत करता है। जो दुखी को देखकर दुखी होता है, खुदा उसका हाथ थाम लेता है। जो दूसरों को तुच्छ मानता है, वह खुदा की निगाह में नीच है। इसलिए ऐसा कोई कर्म न करो, जिससे दूसरों को कष्ट हो।’

अंदर की पवित्रता

                सभी धर्मग्रंथों में आत्मनियंत्रण को जीवन की सफलता का प्रमुख साधन बताया गया है। पुराणों में कहा गया है, ‘दिव्य गुणों के विकास के लिए सबसे पहले अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखने का संकल्प लेना चाहिए। 


मनुस्मृति में कहा गया है, हरन्ति दोषाजातानि नरमिन्द्रिय किंकरम्, यानी जो मनुष्य इंद्रियों का दास है, उसे अनेक दुर्गुण चपेट में ले लेते हैं। अतः इंद्रियों पर संयम करने का अभ्यास करना चाहिए।’


ब्रह्मनिष्ठ संत उड़िया बाबा के आश्रम में एक बार साधु बना एक युवक पहुंचा। एक दिन भिक्षा में मिले भोजन को उसने यह कहकर फेंक दिया, ‘इसमें स्वाद ही नहीं है, इसे कैसे जबर्दस्ती गले के नीचे उतारूं।’ 


उड़िया बाबा ने उसे प्रेम से समझाते हुए कहा, ‘घर वापस लौट जाओ। जब इंद्रियों पर संयम कर लो, तब साधु बनना।’ बाबा ने उपदेश में कहा, ‘जितेंद्रिय पुरुष ही सच्चा साधु है। जिसने मन और जिह्वा पर नियंत्रण कर लिया है, वह सद्गृहस्थ होते हुए भी उच्च कोटि का महात्मा है।’




पुराणों में कहा गया है, ‘संयमी पुरुष जहां निवास करता है, वही स्थान पवित्र आश्रम है। जो व्यक्ति पांचों इंद्रियों पर संयम कर लेता है, वही सच्चा महात्मा है।’ महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है, तीर्थानां हृदयं तीर्थ शुचिनां हृदयं शुचिः। 


अर्थात, समस्त तीर्थों में हृदय ही परम तीर्थ है। सारी पवित्रताओं में अंतरात्मा की पवित्रता ही मुख्य है। कितने ही तीर्थों में वास कर लो, पवित्र नदियों में स्नान कर लो, किंतु यदि हृदय में विकार है, तो तीर्थ अथवा नदियां भी पवित्र नहीं कर सकतीं।


 

सेवा से स्वर्ग

       एक दिन ईसा से एक भक्त ने प्रश्न किया, ‘मैं दो समय की रोटी जुटाने के लिए दिन भर काम में लगा रहता हूं। न किसी की सेवा कर पाता हूं, न कोई सत्कर्म। फिर मेरा कल्याण कैसे होगा?’ ईसा ने बताया, ‘जब तक तुम्हारे माता-पिता हैं, तुम प्रतिदिन अपने हाथों से उनकी सेवा करते रहो। अपनी ईमानदारी की कमाई से जो भी भोजन तैयार करो, पहले उन्हें खिलाकर फिर खुद खाओ, तुम्हारा जीवन स्वतः सार्थक हो जाएगा।’ 


ईसा कहते हैं, ‘गरीब से गरीब व्यक्ति भी सदाचार के पालन से स्वर्ग का भागी बन सकता है। उसे किसी भी तरह की हिंसा नहीं करनी चाहिए। बेईमानी और चोरी नहीं करनी चाहिए। किसी स्त्री के साथ व्यभिचार नहीं करना चाहिए तथा किसी के विरुद्ध झूठी गवाही नहीं देनी चाहिए। इन चार संकल्पों का पालन करने मात्र से वह व्यक्ति स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।’


अय्यूब के उपदेश में कहा गया है, ‘पग-पग पर ईश्वर का भय मानना चाहिए। हमें विश्वास करना चाहिए कि हमारे सत्कर्मों व दुष्कर्मों को प्रभु देख रहा है। प्रभु का भय मानने वाला स्वतः पापों से बचा रहता है। अधिकांश मनुष्यों ने ईश्वर को नहीं देखा है, किंतु माना जाता है कि वह ज्योतिस्वरूप है। असंख्य भक्तों और संतों ने इस ज्योति की अनुभूति प्राप्त की है।’ ईसा अपने उपदेश में कहते हैं, ‘धनाढ्य व्यक्ति अहंकार और अन्य विकृतियों से बचा रहे, यह बहुत कम संभव होता है। इसलिए उतना ही धन संचय करना चाहिए, जिससे जीवन निर्वाह सहजता से होता रहे।’

जागो-सीखो

        तमाम सांसारिक सुविधाएं उपलब्ध होने के बाद भी पूर्णा असंतुष्ट और दुखी थी। शांति की खोज में एक रात वह बौद्ध विहार पहुंची। वहां भी वह सुख की नींद न सो सकी और जागती रही। उसने एक भिक्षु को देखा कि वह भी जाग रहा है। उसे शंका हुई कि कहीं वह उसके रूप-सौंदर्य के कारण तो नहीं जाग रहा है। वह अगले सवेरे निराश मन से घर लौट गई। 


एक दिन बुद्ध भिक्षा मांगते हुए उसके घर जा पहुंचे। उसे लगा कि कहीं यह भिक्षु भी आकर्षित होकर न आया हो। उसने मन में सोचा कि क्यों न भिक्षु को झिड़ककर भगा दिया जाए। किंतु भिक्षु की शांत मुद्रा देखकर वह शांत हो गई। उसने उन्हें भोजन कराया। भोजन के बाद तथागत ने पूछा, ‘पूर्णे, तू भिक्षुओं के प्रति आशंकित क्यों है?’ वह समझ गई कि यह बुद्ध हैं। उसने बता दिया कि वह विहार में रात भर जगी रही, भिक्षु भी नहीं सो पाया। बुद्ध ने कहा, ‘पूर्णा तू उस रात अपने दुख और विकारों के कारण नहीं सोई थी और मेरे भिक्षु आनंद के कारण जगे थे। वे ध्यान कर रहे थे।’ 


तथागत ने कहा, ‘जागने और वास्तव में जागने में अंतर है। तू जागना सीख। सोए-सोए तो तूने सब गंवाया ही गंवाया है।’ धम्मगाथा सुनाते हुए बुद्ध ने कहा, सदा जागरमानानं अहोरत्तानु सिक्खिनं। निब्बानं अधिमुत्तानं अत्थं गच्छंति आसवा। यानी जो सदा जागरूक रहते हैं और हर समय सीखने की इच्छा रखते हैं, वही सत्य की थाह ले सकते हैं। वही निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। पूर्णा उसी क्षण उनका अनुसरण करने निकल पड़ी।

धर्म का तत्व

            आचार्य कात्यायन ने चारों वेदों, सभी उपनिषदों तथा १८ पुराणों का गहन अध्ययन किया था। इसके बावजूद उनके मन में यह जिज्ञासा बनी रहती थी कि धर्म का सारभूत तत्व क्या है। किस प्रकार के साधन नियम के उपयोग से मनुष्य आत्म कल्याण कर सकता है। एक दिन वह मुनिश्रेष्ठ सारस्वत के आश्रम में पहुंचे। 


उन्होंने अत्यंत विनम्रता से उनसे पूछा, ‘महर्षे, कोई कहता है कि सत्य ही धर्म का सार है। सत्य का पालन करने से सहज में ही कल्याण हो जाता है। कुछ तप और शौचाचार की महिमा गाते हैं। कुछ सांख्य (ज्ञान) को कल्याण का मार्ग बताते हैं। कुछ शास्त्रों में कहा गया है कि वैराग्य, विरक्ति, समभाव तथा इंद्रिय संयम अपनाने से कल्याण हो जाएगा। आप सर्वज्ञ हैं, मेरी जिज्ञासा का समाधान करने की कृपा करें।’ 


मुनि सारस्वत ने बताया, ‘समस्त धर्मशास्त्रों का सार यही है कि धन, यौवन और योग माया के वे रूप हैं, जिनसे आकर्षित होकर मानव अपना जीवन अशांति की भट्ठी में झोंक डालता है। इनसे संयम से ही बचा जा सकता है। सांसारिक प्रपंचों से बचकर सदाचार, धर्मपालन, भक्ति और परोपकार में समय लगाना चाहिए। धर्म से राग करना चाहिए, पाप कर्म से बचे रहने की चिंता करनी चाहिए।’


कात्यायन ने प्रश्न किया, ‘दान और तपस्या में से कौन दुष्कर है और कौन महान फल देने वाला है?’ मुनि बताते हैं, ‘मुने, इस धरती पर दान से बढ़कर दुष्कर कार्य कोई नहीं है। जो व्यक्ति दान करता है, वह सबसे बड़ा तपस्वी है।’ आचार्य कात्यायन जी की जिज्ञासा का समाधान हो गया।

तृष्णा अनंत दुखदायी

    
            गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब शिष्य विदा होता था, तो गुरु उसे अंतिम उपदेश देते हुए धर्मशास्त्रों व नीतिशास्त्रों के सार से अवगत कराया करते थे। उसे बताया करते कि सदाचार और शील का पालन करते हुए लोक-परलोक को सफल बनाया जा सकता है।

आचार्य वशिष्ठ जी ने एक बार देखा कि उनका एक शिष्य साधन संपन्न होते हुए भी असीमित इच्छाओं के कारण धनाढ्यों के आगे गिड़गिड़ाने को बाध्य होता रहता है, तो उन्हें बहुत पीड़ा हुई। 

वशिष्ठ जी ने उस शिष्य को एकांत में उपदेश देते हुए कहा, ‘पुत्र, तृष्णा का का कभी अंत नहीं होता। यह विषबेल के समान हर क्षण बढ़ती ही रहती है। वर्षा ऋतु की अंधेरी रात के समान मन में अनंत विकार उत्पन्न करने वाली यह तृष्णा कभी शांत नहीं बैठने देती। तृष्णा से पीड़ित व्यक्ति दूसरों के सामने गिड़गिड़ाकर दीनता का परिचय देता रहता है। अतः सबसे पहले तृष्णा का त्याग करके संतोषरूपी गुण को दृढ़ता से अपनाना चाहिए।’ 

महर्षि वशिष्ठ योगवशिष्ठ में लिखते हैं, ‘तृष्णा से ग्रस्त लोग सूत के धागे में बंधे पक्षी के समान देश-विदेश में भटकते, शोक से जर्जर होकर अंततः काल को प्राप्त होते हैं। जैसे हिरण तिनकों से आच्छादित गड्ढे के ऊपर रखी गई हरी घास को चरने की इच्छा में गड्ढे में गिर जाता है, उसी प्रकार तृष्णा में लिप्त मूर्ख नरक में गिरता है।’ निश्चय ही जहां तृष्णारूपिणी काली रात नष्ट हो गई है, वहां शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति सत्कर्म बढ़ते हैं। अतः सबसे पहले तृष्णाओं का त्याग करना चाहिए।

कृतज्ञता ज्ञापन

             सभी धर्मग्रंथों में माता, पिता, दादा अथवा अन्य वृद्धजनों की सेवा व सम्मान की प्रेरणा दी गई है। पद्मपुराण में कहा गया है, पतितं क्षुधितं वृद्धमशक्तं सर्वकर्मसु। व्याधितं कुष्ठिनं तातं मातरं च तथाविधाम॥ उपाचारति यः पुत्रस्तस्यं पुण्यं वदाम्यहम्॥’ अर्थात, जो पुत्र अन्य कार्यों में असमर्थ तथा रोगी माता-पिता व वृद्धजनों की सेवा करता है, ऐसे पुत्र को भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है। 


कहा गया है, नास्ति मातुः परं तीर्थः पुत्राणां च पितुस्तथा। नारायण समावेताविह चैव परम च। पुत्र के लिए माता-पिता से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है। वे साक्षात नारायण के समान हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में जीवित माता, पिता व वृद्धजनों की सेवा ही नहीं, अपितु मृत्यु के बाद भी उनकी तृप्ति के लिए श्राद्ध तर्पण जैसे कर्मकांड के विधान का वर्णन किया गया है। पुराण में कहा गया है, श्रद्धया पित्तृन उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्। अर्थात पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से जो कर्म किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है। 


भारतीय संस्कृति में कृतज्ञता ज्ञापन को धर्म का प्रमुख अंग बताया गया है। श्राद्ध पक्ष में न केवल दिवंगत माता-पिता, बल्कि अपने अन्य पूर्वजों, गुरुजनों तक की पावन स्मृति में तर्पण करना पुण्यदायक व आवश्यक माना गया है। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘भारत के वे लोग धन्य हैं, जो माता-पिता की सेवा तो करते ही हैं, उनकी मृत्यु के उपरांत भी वर्ष में एक बार उन्हें तृप्त करने के लिए विधि विधान से कर्मकांड करते हैं।’

मन मंदिर है

   आर्य संन्यासी महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती अपने प्रवचन में कहा करते थे कि मनुष्य को शरीर को निरोग और मन को मंदिर के समान पवित्र रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। स्वस्थ शरीर से ही मनुष्य अपने धर्म (कर्तव्य) का नियमित पालन कर सकता है। जिसका शरीर रोगी है, उसके मन में भी विकार व निराशा के भाव पनपते रहते हैं। अतः योग, ध्यान व व्यायाम को जीवन शैली का नियमित अंग बना लेना चाहिए। सात्विक आहार और परिश्रम से शरीर को निरोग रखा जा सकता है। 


स्वामी जी उपदेश में कहते हैं, ‘मन एक मंदिर है। मनुष्य को यह इसलिए नहीं सौंपा गया है कि वह इसमें भय, चिंता, क्रोध, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष और असंयम जैसा कूड़ा-करकट जमा करता रहे। मन का मंदिर तो सदा पवित्र रहना चाहिए। मन को प्रसन्नता प्रेम, उत्साह, उल्लास, भगवन्नाम जैसे पुष्पों से सजाए रखना चाहिए। इसे सुरक्षित रखने का साधन यही है कि सदैव सद्विचारों का मनन करते रहें।’
कुछ क्षण रुककर वह कहते हैं, ‘हमें संकटों व कष्टों में भी विचलित न होकर शुद्ध संकल्प मन में धारण रखना चाहिए। 


उपनिषद् में कहा गया है कि दुखी होकर भी खुद को दुखी न समझो- एतद्वै परमं तपो यद् व्याहितस्तप्यते। यदि रोग या संकट आता है, तो समझो कि यह तप ही है। सुख-दुख में एक समान रहने वालों को ही तपस्वी-योगी बताया गया है। यदि मन में किसी के प्रति घृणा की भावना आती है, तो मानना चाहिए कि हमारे संचित तप पुण्य नष्ट हो रहे हैं। अतः मन को मंदिर की तरह निर्मल बनाने के प्रयास करने चाहिए।’

अविद्या-भय से बचें

           स्वामी रामतीर्थ से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘आपकी दृष्टि में धर्म क्या है और आप किसे धार्मिक मानते हैं?’ स्वामी जी ने कहा, ‘कर्तव्य पालन और करुणा भावना ही धर्म का सार है। जो किसी भी प्राणी के दुख को देखकर द्रवित हो उठे, वही सच्चा धार्मिक है।’

स्वामी रामतीर्थ ने लंदन में आयोजित धर्म सम्मेलन में कहा था, ‘सभी प्राणियों में समभाव रखने को ही धर्म कहते हैं। अपने समान सभी प्राणियों के प्रति अनुकूल व्यवहार करना, सभी के दुख में दुखी व सुख में खुशी अनुभव करना ही वेदांत का लक्षण है। धर्मग्रंथों में न केवल मानव, अपितु पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों में भी समान आत्मा के दर्शन कर किसी को भी कष्ट न पहुंचे, ऐसा करने की प्रेरणा दी गई है। जीवनदायिनी नदियों और प्राण-वायुदायक वृक्षों में भी ईश्वर के दर्शन करना भारतीय संस्कृति की विशेषता है।’
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं, ‘श्रद्धा और करुणा भावना को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है।

करुण हृदय व्यक्ति सपने में भी किसी के प्रति द्वेष या घृणा की भावना नहीं रख सकता। भारतीय दर्शन में कहा गया है, ‘सभी को अपना समझो। दरिद्र-दुखियों की सेवा ही परमात्मा की सेवा है। संग्रह का भार आत्मदर्शन में बाधक है। छल से कमाया हुआ धन अहंकार और दुर्गुणों को बढ़ावा देकर सद्गुणों से परमात्मा की भक्ति से विमुख करता है।’ इसलिए धन, संपत्ति व भौतिक सुखों से बचने में ही कल्याण है।’ स्वामी रामतीर्थ अविद्या, दुर्बलता और भय को पतन का प्रमुख कारण बताया करते थे।

कर्मों का फल

             
एक बार एक जिज्ञासु ने आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से पूछा, ‘क्या ईश्वर अपने भक्तों के पूर्व में किए पापों को क्षमा कर देते हैं?’ स्वामी जी ने उत्तर दिया, ‘कदापि नहीं। ईश्वर न्यायकारी हैं। यदि वह पाप क्षमा करेंगे, तो न्यायकारी कैसे रह जाएंगे? यदि इस धारणा को स्वीकार कर लिया जाए कि ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होकर अपने भक्तों के पाप कर्मों के क्षमा कर देंगे, तो मानव स्वच्छंद होकर पाप कर्मों में लगा रहेगा, जैसे राजा अगर अपराधियों के अपराध क्षमा करने लगे, तो अपराधी स्वच्छंद होकर अपराधों को अंजाम देने लगेगा। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।’

स्वामी दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं, ‘जीव अपने कर्मों में स्वतंत्र है, ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र। वह आगे लिखते हैं-यह भ्रांत धारणा है कि ईश्वर ही मनुष्य से तमाम कार्य करवाता है। मनुष्य अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार पाप व पुण्य कार्य करता है। अपने सामर्थ्यानुकूल कार्य करने में मनुष्य स्वतंत्र है, लेकिन जब वह अज्ञान, दुर्बुद्धि, कुसंग आदि विभिन्न कारणों से पाप करता है, तो ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर उसके फल भोगने पड़ते हैं।’

स्वामी जी लिखते हैं, ‘परमेश्वर पवित्र व न्यायकारी है। यदि परमेश्वर ही मनुष्यों से कार्य कराता, तो उससे पाप कर्म कैसे होता? परमेश्वर भला पाप की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं? मनुष्य स्वतंत्र होने के कारण स्वयं पाप करता है। परमात्मा मनुष्यों को उसके कर्मानुसार फल देता है।’