Saturday, September 17, 2011

मार्गदर्शक कर्मयोगी

    वेदांत के प्रकांड विद्वान, आडंबरों के प्रबल विरोधी और पाश्चात्य विश्व में हिंदू धर्म की सारगर्भित व्याख्या करने वाले प्रख्यात मनीषी स्वामी विवेकानंद ने स्वयं को न तो कभी तत्व जिज्ञासु की श्रेणी में रखा, न सिद्ध पुरुष माना और न कभी दार्शनिक ही कहा। उन्होंने जीवन में सदैव चरित्र निर्माण को प्रमुखता देने और सत्य बोलने पर बल दिया। उनका मानना था कि परोपकार और प्रेम ही जीवन है, जबकि संकोच व द्वेष मृत्यु।
उन्हें अपने देशवासियों की स्थिति देखकर पीड़ा होती थी। अध्यात्म के पथ पर चलने वाला यह योगी उस मार्ग तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वह इस देश की समग्र उन्नति चाहता था। कहने को वह शक्ति मार्ग के उपासक थे, लेकिन आधुनिक चिंतन उन्हें एक ऐसामनीषी बनाता था, जिसे भारत के सुखद भविष्य के रास्ते का पता था। 
वह हमारे पिछड़ेपन का कारण हमारी सोच को मानते थे। उनके मुताबिक, हमने उसी दिन से मरना शुरू कर दिया, जब से हम अन्यान्य जातियों से घृणा करने लगे। यह मृत्यु विस्तार के बिना किसी उपाय से रुक नहीं सकती, जो जीवन का गति नियामक है। दास जाति के दोष, पराधीनता के जन्म, पाश्चात्य विश्व के लोगों की सफलता और किसी राष्ट्र की दुर्बलता के कारणों का समय-समय पर अपने प्रवचनों व भक्तों को लिखे पत्रों में उन्होंने विस्तार से खुलासा किया है। उनका सपना था कि पराधीन भारत के बीस करोड़ लोगों में नवशक्ति का संचार हो, करोड़ों पददलित गरीबी, छल-प्रपंचों, ताकतवरों के अत्याचारों और अशिक्षा के अभिशाप से मुक्त हों तथा उनके जीवन में खुशहाली आए। इसके लिए उन्होंने ईश्वर पर भरोसा रखते हुए निःस्वार्थ भाव से चारित्रिक दृढ़ता के साथ कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दी।
उनका स्पष्ट मत था कि प्रत्येक दास जाति का मुख्य दोष ईर्ष्या होता है और सद्भाव का अभाव पराधीनता उत्पन्न करता और उसे स्थायी बनाता है। जिनकी सदाचार संबंधी उच्चाभिलाषा मर चुकी है, जो भविष्य की उन्नति के लिए बिलकुल भी चेष्टा नहीं करते और भलाई करने वाले को दबाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं, उन मृत जड़ पिंडों के भीतर प्राण संचार कर पाना असंभव है। अमेरिकी और यूरोपीय नागरिक विदेश में भी अपने देशवासियों की सहायता करते हैं, जबकि हिंदू अपने देशवासियाें को अपमानित होते देख हर्षित होते हैं।
विवेकानंद भारतीयों की उन्नति की पहली शर्त स्वाधीनता मानते थे। यह स्वाधीनता विचारों की अभिव्यक्ति के साथ खान-पान, पोशाक, पहनावा, विवाह आदि हर बात में मिलनी चाहिए। लेकिन यह स्वाधीनता दूसरों को हानि पहुंचाने वाली नहीं होनी चाहिए। वह कहा करते थे, चट्टान के समान दृढ़ रहो, सत्य की हमेशा जय होती है। देश को नवविद्युत शक्ति की आवश्कता है, जो जातीय धमनी में नवीन बल उत्पन्न कर सके।... निःस्वार्थ भाव से काम करने में संतुष्ट रहो, अपनी आत्मा को पूर्ण रूप से शुद्ध, दृढ़ और निष्कपट रखते हुए किसी को धोखा न दो। क्षुद्र मनुष्यों और मूर्खों की बकवास पर ध्यान न दो, क्योंकि सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है और सत्य का एक शब्द भी लोप नहीं हो सकता।
परतंत्र भारत में देशवासियों की गरीबी उन्हें विचलित करती थी। विवेकानंद खुद को न सिर्फ निर्धन मानते थे, बल्कि निर्धनों से प्रेम भी करते थे। वह कहते थे कि देश के जो करोड़ों नर-नारी गरीबी में फंसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उनके उद्धार का क्या उपाय है? वे अंधकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, न उन्हें शिक्षा प्राप्त होती है। उन्हें इस बात की चिंता होती थी कि कौन उन्हें प्रकाश देगा और कौन उन्हें द्वार-द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा। स्वामी जी महात्मा उन्हें मानते थे, जिसका हृदय गरीबों के लिए सदैव द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। उनके मुताबिक, जब तक देश में करोड़ों लोग भूखे और अशिक्षित हैं, तब तक वह हरेक आदमी, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, विश्वासघातक है। गरीबों को कुचलकर धनवान बनकर ठाठ-बाट से चलने वाले लोग यदि करोड़ों देशवासियों के लिए कुछ न करें, तो घृणा के पात्र हैं। 
स्वामी विवेकानंद के विचार उनकी मान्यताओं और जीवन दर्शन का तो स्पष्ट प्रमाण हैं ही, यह संदेश भी देते हैं कि उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर ही विश्व का कल्याण संभव है। इसलिए देश की उन्नति के लिए उनके बताए मार्गों पर चलना जरूरी है।

No comments:

Post a Comment