Saturday, September 17, 2011

तृष्णा अनंत दुखदायी

    
            गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब शिष्य विदा होता था, तो गुरु उसे अंतिम उपदेश देते हुए धर्मशास्त्रों व नीतिशास्त्रों के सार से अवगत कराया करते थे। उसे बताया करते कि सदाचार और शील का पालन करते हुए लोक-परलोक को सफल बनाया जा सकता है।

आचार्य वशिष्ठ जी ने एक बार देखा कि उनका एक शिष्य साधन संपन्न होते हुए भी असीमित इच्छाओं के कारण धनाढ्यों के आगे गिड़गिड़ाने को बाध्य होता रहता है, तो उन्हें बहुत पीड़ा हुई। 

वशिष्ठ जी ने उस शिष्य को एकांत में उपदेश देते हुए कहा, ‘पुत्र, तृष्णा का का कभी अंत नहीं होता। यह विषबेल के समान हर क्षण बढ़ती ही रहती है। वर्षा ऋतु की अंधेरी रात के समान मन में अनंत विकार उत्पन्न करने वाली यह तृष्णा कभी शांत नहीं बैठने देती। तृष्णा से पीड़ित व्यक्ति दूसरों के सामने गिड़गिड़ाकर दीनता का परिचय देता रहता है। अतः सबसे पहले तृष्णा का त्याग करके संतोषरूपी गुण को दृढ़ता से अपनाना चाहिए।’ 

महर्षि वशिष्ठ योगवशिष्ठ में लिखते हैं, ‘तृष्णा से ग्रस्त लोग सूत के धागे में बंधे पक्षी के समान देश-विदेश में भटकते, शोक से जर्जर होकर अंततः काल को प्राप्त होते हैं। जैसे हिरण तिनकों से आच्छादित गड्ढे के ऊपर रखी गई हरी घास को चरने की इच्छा में गड्ढे में गिर जाता है, उसी प्रकार तृष्णा में लिप्त मूर्ख नरक में गिरता है।’ निश्चय ही जहां तृष्णारूपिणी काली रात नष्ट हो गई है, वहां शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति सत्कर्म बढ़ते हैं। अतः सबसे पहले तृष्णाओं का त्याग करना चाहिए।

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