Saturday, September 17, 2011

मन मंदिर है

   आर्य संन्यासी महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती अपने प्रवचन में कहा करते थे कि मनुष्य को शरीर को निरोग और मन को मंदिर के समान पवित्र रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। स्वस्थ शरीर से ही मनुष्य अपने धर्म (कर्तव्य) का नियमित पालन कर सकता है। जिसका शरीर रोगी है, उसके मन में भी विकार व निराशा के भाव पनपते रहते हैं। अतः योग, ध्यान व व्यायाम को जीवन शैली का नियमित अंग बना लेना चाहिए। सात्विक आहार और परिश्रम से शरीर को निरोग रखा जा सकता है। 


स्वामी जी उपदेश में कहते हैं, ‘मन एक मंदिर है। मनुष्य को यह इसलिए नहीं सौंपा गया है कि वह इसमें भय, चिंता, क्रोध, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष और असंयम जैसा कूड़ा-करकट जमा करता रहे। मन का मंदिर तो सदा पवित्र रहना चाहिए। मन को प्रसन्नता प्रेम, उत्साह, उल्लास, भगवन्नाम जैसे पुष्पों से सजाए रखना चाहिए। इसे सुरक्षित रखने का साधन यही है कि सदैव सद्विचारों का मनन करते रहें।’
कुछ क्षण रुककर वह कहते हैं, ‘हमें संकटों व कष्टों में भी विचलित न होकर शुद्ध संकल्प मन में धारण रखना चाहिए। 


उपनिषद् में कहा गया है कि दुखी होकर भी खुद को दुखी न समझो- एतद्वै परमं तपो यद् व्याहितस्तप्यते। यदि रोग या संकट आता है, तो समझो कि यह तप ही है। सुख-दुख में एक समान रहने वालों को ही तपस्वी-योगी बताया गया है। यदि मन में किसी के प्रति घृणा की भावना आती है, तो मानना चाहिए कि हमारे संचित तप पुण्य नष्ट हो रहे हैं। अतः मन को मंदिर की तरह निर्मल बनाने के प्रयास करने चाहिए।’

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