Saturday, September 17, 2011

कृतज्ञता ज्ञापन

             सभी धर्मग्रंथों में माता, पिता, दादा अथवा अन्य वृद्धजनों की सेवा व सम्मान की प्रेरणा दी गई है। पद्मपुराण में कहा गया है, पतितं क्षुधितं वृद्धमशक्तं सर्वकर्मसु। व्याधितं कुष्ठिनं तातं मातरं च तथाविधाम॥ उपाचारति यः पुत्रस्तस्यं पुण्यं वदाम्यहम्॥’ अर्थात, जो पुत्र अन्य कार्यों में असमर्थ तथा रोगी माता-पिता व वृद्धजनों की सेवा करता है, ऐसे पुत्र को भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है। 


कहा गया है, नास्ति मातुः परं तीर्थः पुत्राणां च पितुस्तथा। नारायण समावेताविह चैव परम च। पुत्र के लिए माता-पिता से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है। वे साक्षात नारायण के समान हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में जीवित माता, पिता व वृद्धजनों की सेवा ही नहीं, अपितु मृत्यु के बाद भी उनकी तृप्ति के लिए श्राद्ध तर्पण जैसे कर्मकांड के विधान का वर्णन किया गया है। पुराण में कहा गया है, श्रद्धया पित्तृन उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्। अर्थात पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से जो कर्म किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है। 


भारतीय संस्कृति में कृतज्ञता ज्ञापन को धर्म का प्रमुख अंग बताया गया है। श्राद्ध पक्ष में न केवल दिवंगत माता-पिता, बल्कि अपने अन्य पूर्वजों, गुरुजनों तक की पावन स्मृति में तर्पण करना पुण्यदायक व आवश्यक माना गया है। किसी ने ठीक ही कहा है, ‘भारत के वे लोग धन्य हैं, जो माता-पिता की सेवा तो करते ही हैं, उनकी मृत्यु के उपरांत भी वर्ष में एक बार उन्हें तृप्त करने के लिए विधि विधान से कर्मकांड करते हैं।’

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