Saturday, September 17, 2011

धर्म का तत्व

            आचार्य कात्यायन ने चारों वेदों, सभी उपनिषदों तथा १८ पुराणों का गहन अध्ययन किया था। इसके बावजूद उनके मन में यह जिज्ञासा बनी रहती थी कि धर्म का सारभूत तत्व क्या है। किस प्रकार के साधन नियम के उपयोग से मनुष्य आत्म कल्याण कर सकता है। एक दिन वह मुनिश्रेष्ठ सारस्वत के आश्रम में पहुंचे। 


उन्होंने अत्यंत विनम्रता से उनसे पूछा, ‘महर्षे, कोई कहता है कि सत्य ही धर्म का सार है। सत्य का पालन करने से सहज में ही कल्याण हो जाता है। कुछ तप और शौचाचार की महिमा गाते हैं। कुछ सांख्य (ज्ञान) को कल्याण का मार्ग बताते हैं। कुछ शास्त्रों में कहा गया है कि वैराग्य, विरक्ति, समभाव तथा इंद्रिय संयम अपनाने से कल्याण हो जाएगा। आप सर्वज्ञ हैं, मेरी जिज्ञासा का समाधान करने की कृपा करें।’ 


मुनि सारस्वत ने बताया, ‘समस्त धर्मशास्त्रों का सार यही है कि धन, यौवन और योग माया के वे रूप हैं, जिनसे आकर्षित होकर मानव अपना जीवन अशांति की भट्ठी में झोंक डालता है। इनसे संयम से ही बचा जा सकता है। सांसारिक प्रपंचों से बचकर सदाचार, धर्मपालन, भक्ति और परोपकार में समय लगाना चाहिए। धर्म से राग करना चाहिए, पाप कर्म से बचे रहने की चिंता करनी चाहिए।’


कात्यायन ने प्रश्न किया, ‘दान और तपस्या में से कौन दुष्कर है और कौन महान फल देने वाला है?’ मुनि बताते हैं, ‘मुने, इस धरती पर दान से बढ़कर दुष्कर कार्य कोई नहीं है। जो व्यक्ति दान करता है, वह सबसे बड़ा तपस्वी है।’ आचार्य कात्यायन जी की जिज्ञासा का समाधान हो गया।

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