नियति
रात की दस्तक दरवाज़े पर है आज का दिन भी बीत गया है कितना था उजाला फिर भी फिर से अन्धियारा ही जीत गया है एकान्त की चादर ओढ़ कर फिर से मैं खुद में खोया जाता हूँ आँखों के सामने यादों के रथ पर मेरा ही अतीत गया है सन्नाटों के गुन्जन में दबकर अपनी ही आवाज़ नहीं आती मुझको आँखों की सरहद पर लड़ता आँसू भी अब जीत गया है टूटे दर्पण के सामने बैठकर मैं स्वयं को खोज रहा हूँ यूँ ही बैठे बैठे जाने कितना अरसा बीत गया है ... ॥
- आरिफ़ ख़ान
|
No comments:
Post a Comment