Saturday, September 17, 2011

पटेल की विरासत

            यदि प्रश्न उठे कि सरदार वल्लभाई झवेरदास पटेल के बहुगुणी जीवन की एक विशिष्टता गिनाओ, तो आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में उत्तर यही होगा, ‘पटेल द्वारा अपने घर में वंशवाद का आमूल खात्मा।’ आखिर बचा कौन है इस कैकेयी-धृतराष्ट्री मनोवृत्ति से? महात्मा गांधी के बाद सरदार पटेल ही थे, जिनके आत्मजों का नाम-पता शायद ही कोई आमजन जानता हो।
पटेल का इकलौता पुत्र था, डाह्यालाल वल्लभभाई पटेल, जिससे उनके पिता ने सारे नाते तोड़ लिए थे। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही मुंबई के एक सार्वजनिक मंच से सरदार पटेल ने घोषणा कर दी थी कि उनके पद पर उनके पुत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए सत्ता और कुटुंब के मध्य रिश्ता नहीं होना चाहिए। पिता के निधन के बाद डाह्यालाल स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए, जिसका गठन नेहरूवादी समाजवाद के खिलाफ किया गया था। सरदार पटेल की एक ही पुत्री थी मणिबेन पटेल, जो अविवाहित रहकर पिता की सेवा में रही, कोई लाभ का पद कभी नहीं लिया। सरदार पटेल का एक ही पोता था, विपिन पटेल, जो गुमनामी में जीता रहा। उसका जब निधन (12 मार्च 2004) दिल्ली में हुआ था, तो अंत्येष्टि में चंद लोग ही थे। लोगों को अखबारों से दूसरे दिन पता चला। हालांकि पटेल से प्रेरणा पाने का दावा करने वाले भाजपाई तब राजग सरकार में सत्तारूढ़ थे। वे नहीं आए। कांग्रेसी तो एक भी नहीं पहुंचा। 
पटेल जब राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन के लिए 1931 में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, तो उनके पहले मोतीलाल-जवाहरलाल की जोड़ी उसी पद पर आरूढ़ हो चुकी थी। कांग्रेस में वंशवाद की शुरूआत भी तभी (दिसंबर 1929) से लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन से हुई थी। आज तक वही परिवारवाद चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी के रूप में पल्लवित हो रही है। मगर पटेल के लिए राष्ट्र कुटुंब से पहले था। 
पटेल को नेहरूवादियों ने समाजवाद-विरोधी तथा हिंदूवादी चित्रित किया था। समतावाद से पटेल को कोई आकर्षण नहीं था, क्योंकि उनका जन्म गुजरात में हुआ, जो आज भी समाजवाद के लिए ऊसर भूमि है। खुद गांधीजी समाजवादियों के निकट निजी रूप से थे, पर वैचारिक पैमाने पर कभी नहीं। सरदार पटेल तो इन सोशलिस्टों को विध्वंसक मानते थे। सोशलिस्टों, खासकर जयप्रकाश नारायण ने, पटेल पर आरोप लगाया था कि गांधीजी की हत्या के दोषी वह भी हैं, क्योंकि गृह मंत्री होने के नाते उन्होंने पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं कराई थी। हालांकि सितंबर, 1974 को सूरत की एक जनसभा में जेपी ने चौबीस वर्षों बाद सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा कि तब सोशलिस्ट जन नेहरूवादी प्रगतिशीलता के वैचारिक कुहासे से आच्छादित थे। पटेल को वे प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी मानते थे। नेहरू के बजाय पटेल, जेपी के आकलन में, योग्यतर प्रधानमंत्री होते। इन सोशलिस्टों द्वारा हिंदूवादी होने के मिथ्यारोप के बावजूद, पटेल ने हिंदू महासभा को दंडित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहली बार दो फरवरी, 1948 को प्रतिबंधित किया गया। उन्होंने सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को चेतावनी दी कि उनका संगठन हिंदुओं का संरक्षक है, मगर उसे मुसलमानों पर आक्रमण करने का हक नहीं है। पटेल ने गोलवलकर की गिरफ्तारी का आदेश भी कर दिया था। यों छत्तीस के आंकड़े के बावजूद सोशलिस्टों की एक मांग को सरदार पटेल पसंद करते थे। तब सड़क पर जेपी, लोहिया, अशोक मेहता जुलूस निकालते थे कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से भारत नाता तोड़े, गुलामी की यह निशानी है। नेहरू नहीं माने। मान जाते, तो दिल्ली में इसी महीने संपन्न हुए खेलों का खेल न होता। पटेल अंगरेजों से कोई नाता-वास्ता नहीं चाहते थे। वह भुगत चुके थे कि किस प्रकार अंतिम गवर्नर जनरल माउंटबैटन ने हैदराबाद, कश्मीर, जूनागढ़ और भोपाल के रजवाड़ों की मदद कर खंडित भारत का मानचित्र बनाया था, जिसे पटेल ने मिटाया था। 
जब जवाहरलाल नेहरू की सेक्यूलर सोच से तुलना के समय लोग सरदार पटेल की मुसलिम-विरोधी छवि निरुपित करते हैं, तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं। स्वभावतः पटेल में किसान मार्का अक्खड़पन था। लखनऊ की एक सभा में पटेल ने कहा था, ‘भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोड़ों पर सवारी नहीं कर सकते।’ इसे भारत में रह गए मुसलमानों ने हिंदुओं द्वारा ऐलान-ए- जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्ठभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आंदोलन के हरावल दस्ते में रहे। मुसलमानों की बाबत पटेल के कड़वे, मगर स्पष्टवादी उद्गार का अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि अनन्य गांधीवादी होने के बावजूद वह सियासत तथा मजहब के घालमेल के कट्टर विरोधी थे। नेहरू के लिए तुष्टिकरण सियासी अपरिहार्यता बन गई थी। पटेल ने गरिमा बनाई रखी, भले ही उनके निधन के बाद नेहरू के साथियों ने नहीं। वरना पटेल की भी समाधि राजघाट के आसपास ही होती जहां नेहरू वंश के चार-चार लोगों के नाम चबूतरे बने हैं।

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